पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२८७

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मायावाद २६१ . . उनका दूसरा सवाल यह है कि माना कि यह दृश्य जगत् मिथ्या , कल्पित है। मगर इसकी बुनियाद तो कही होगी ही। तभी तो ब्रह्ममें आत्मामे यह नजर आता है, आरोपित है, अध्यस्त है, ऐसा माना नायगा। जब कही असली साँप पडा है तभी तो रस्सीमे उसका आरोप होता है, कल्पना होती है। जब हमारा सर सही सावित है तभी तो सपने मे कटता नजर आता है। जब कोई भूखा-नगा दर-दर सचमुच पूमता रहता है तभी तो हम अपने आपको सपनेमे वैसा देखते है । ऐसा तो कभी नही होता कि जो वस्तु कही होई न, उसीकी कल्पना की जाय, उसीका आरोप किया जाय। कल्पित वस्तुकी भी कही तो वस्तु सत्ता होती ही है। नहीं तो कल्पना या भ्रम होई नही सकता। इसलिये इस सारको कल्पित या मिथ्या मान लेनेपर भी कही न कही इसे वस्तुगत्या मानना ही होगा, कही न कही इसकी वस्तुस्थिति स्वीकार करनी ही होगी। ऐसी दशामे मायावाद बेकार हो जाता है। क्योकि आखिर सच्चा ससार भी तो मानना ही पड जाता है। फिर अध्यासवादकी क्या जरूरत है? लेकिन यदि हम इनकी तहमे घुसे तो ये दोनो शकाये भी कुछ ज्यादा कीमत नही रखती है, ऐसा मालूम हो जाता है । यह ठीक है कि यह नीद, यह माया निर्विकार आत्मा या ब्रह्ममे ही है और उसीके चलते यह सारी खुराफात है । दृश्य जगत्का सपना वही निर्लेप ब्रह्म ही तो देखता है । खूबी तो यह है कि यह सब कुछ देखनेपर भी, यह खुराफात होनेपर भी वह निर्लेपका निर्लेप ही है । मरुस्थलमे सूर्यकी किरणोमे पानीका भ्रम या कल्पना हो जानेपरभी जैसे मरुभूमि उससे भीग नही जाती, या साँपकी कल्पना होनेपर भी रस्सीमे जहर नही आ जाता, ठीक यही बात यहाँ है। सपनेमे सर कटनेपर भी गर्दन तो हमारी ज्योकी त्यो ही रहती है- वह निर्विकार ही रहती है। यही तो मायाकी महिमा है। इसीलिये