२६२ गीता-हृदय तो गीताने उसे "देवी" (७।१४) कहा है। इसका तो मतलव ही कि इसमें निराली करामातें है। यह ऐसा काम करती है कि अचम्भा होता है। ब्रह्म या आत्मामें ही सारे जगत्की रचना यह कर डालती है जरूर। मगर आत्माका दर असल कुछ वनता विगडता नही। हाँ, यह सवाल हो सकता है कि पाखिर उसमें यह माया पिशाची लगी कब और कैसे ? हमें नीद आने या भ्रम होनेकी तो हजार वजहें है। हमारा ज्ञान सकुचित है, हम भूले करते है, चीजोसे लिपटते हैं, खरा- वियाँ रखते है। मगर वह तो ऐसा है नही। वह तो ज्ञानरूप ही माना जाता है, सो भी अखड ज्ञानरूप, जो कभी जरा भी इधर-उधर न हो। वह निर्लेप और निर्विकार है । वह भूले तो इसीलिये कर सकता ही नहीं। फिर उसीमें यह छछुन्दर माया? यह अनहोनी कैसे हुई ? यह बात तो दिमागमें पाती नही कि वह क्यो हुई, कैसे हुई, कब हुई ? कोई वजह तो इसकी नजर आती ही नहीं। अनादिताका सिद्धांत यही कारण है कि ब्रह्ममे मायाका सम्बन्ध अनादि मानते है। इस सम्बन्धका श्रीगणेश यदि कभी माना जाय तो यह सवाल हो सकता है कि ऐसा क्यो हुआ ? मगर इसका श्रीगणेश, इसकी इब्तदा, इसका आरभ (beginning) तो मानते ही नहीं। इसे तो अनादि कहते है। अनादिका तो मतलव ही है कि जिसकी आदि, जिसका श्रीगणेश हुमा न हो। फिर तो सारी शकाओकी बुनियाद ही चली गई। ससारमें अनादि चीजे तो हई। यह कोई नई या निराली कल्पना केवल मायाके ही बारे में तो है नहीं। यदि किसीसे पूछा जाय कि आमका वृक्ष' पहले- पहल हुआ या उसकी गुठली हुई ? पहले वृक्ष हुआ या बीज ? तो क्या उत्तर मिलेगा? दोमें एक भी नहीं कहके यही कहना पडेगा कि बीज .
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