पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२९१

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निर्विकारमें विकार २६५ अब केवले दूसरी शका रह जाती है कि जबतक कही असल चीज न हो तवतक दूसरी जगह उसकी मिथ्या कल्पना हो नहीं सकती। इसी- लिये कही न कही ससारको भी सत्य मानना ही होगा। इसका तो उत्तर आसान है। दूसरी जगह उस चीजका ज्ञान होना जरूरी है। तभी और जगह उसकी मिथ्या कल्पना हो सकती है। बस, इतनेसे ही काम चल जाता है। जहाँ उसका ज्ञान हुआ है वहाँ वह चीज सच्ची है या मिथ्या, इसकी तो कोई जरूरत है नही । कल्पनाकी जगह वह चोज प्रतीत होती है, यही देखते है। न कि उसकी सारी बाते प्रतीत होती है या उसकी सत्यता और मिथ्यापन भी प्रतीत होता है। यदि किसीने बनावटी, इन्द्रजालका या इसी तरहका साँप, फल या फूल देख लिया, उससे पहले उसे इन चीजोकी कही भी जानकारी न रही हो, उसीके साथ यह भी मालूम हो जाय कि यह चीजे मिथ्या है, सच्ची नहीं, तो क्या कही उनका भ्रम होनेपर यह भी बात भ्रमके साथ ही मालूम हो जायगी कि ये मिथ्या है, बनावटी है ? यदि ऐसा ज्ञान हो जाय तो फिर भ्रम कैसा ? ऐसी जानकारी तो भ्रम हटनेपर ही होती है। यह तो कही नही सकते कि झूठी चीजे ही जिनने देखी है, न कि सच्ची भी, उन्हे भ्रम होई नही सकता। भ्रम होता है अपनी सामग्रीके करते और यदि वह सामग्री जुट जाये तो सच्ची-झूठी चीजके करते वह रुक नही सकता। इसलिये जिस चीजका भ्रम हो उसका अन्यत्र सत्य होना जरूरी नहीं है, किन्तु उसकी जानकारी ही असल 'चीज है। जानकारीके बिना सत्य वस्तुका भी कही भ्रम नही होता है। जाने ही नही, तो दूसरी जगह उसकी कल्पना कैसे होगी? इसी प्रकार इस ससारका भी कही. अन्यत्र सत्य होना जरूरी नहीं है। किन्तु किसी एक स्थानपर भ्रमसे ही यह बना है । उसीकी कल्पना दूसरी जगह और इसी तरह आगे भी होती रहती है। एक बार जिसकी कल्पना आत्मामे हो गई उसीकी बार-