पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२९२

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२६६ गीता-हृदय बार होती रहती है। यह कल्पित ही ससार अनादिकालसे चला आ रहा है। मगर हमे इन दार्शनिक विवादोमें न पडके केवल अद्वैतवादका सिद्धान्त मोटामोटी वता देना है और यह काम हमने कर दिया। यहीपर यह भी जान लेना होगा कि जहाँ एक बार इस दृश्य जगत्का अध्यास या आरोप आत्मा या ब्रह्ममे हो गया कि विवर्त्तवादका काम हो गया। चेतन ब्रह्ममें इस जड जगत्के आरोपको ही विवर्त्तवाद कहते है । जहाँतक इस दृश्य- जगत्का ब्रह्मसे ताल्लुक है वहीतक विवर्त्तवाद है। मगर इस जगत्की चीजोके बनने-बिगडनेका जो विस्तार या व्योरा है वह तो गुणवादके आधारपर विकासवादके सिद्धान्तके अनुसार ही होता है । विवर्त्तवादने इन्हें मिथ्या सिद्ध कर दिया। अब परिणाम या विकासवादसे कोई हानि नहीं। क्योकि इससे इन पदार्थोकी सत्यता तो हो सकती नही। विवर्त्त- वादने इनकी जड ही खत्म जो कर दी है। उसके न माननेपर ही यह खतराथा, द्वैतवाद आ जानेकी गुजाइश थी। वस, इतनेके ही लिये विवर्त्त- वाद आ गया और काम हो गया। गीता, न्याय और परमाणुवाद आश्चर्यकी बात कहिये या कुछ भी मानिये, मगर यह सही है कि गीतामे गौतम और कणादका परमाणुवाद पाया नहीं जाता। इसकी कही चर्चा तक नहीं है और न गौतम या कणादकी ही। विपरीत इसके गुणकीर्तन और गुणवाद तो भरा पडा है, जैसा कि पहले बताया जा चुका है। इतना ही नही। जिन योग, साख्य या वेदान्तदर्शनोने इसे मान्य किया है उनका भी उल्लेख है और उनके प्राचार्योका भी। यह ठीक है कि योगदर्शनके प्रवर्तक पतजलिका जिक्र नहीं है। मगर योगकी विस्तृत चर्चा पाँच, छ, पाठ और अठारह अध्यायोमे खूब आई है । यो तो प्रका-