सर्वत्र हमी हम और लोकसग्रह ३०७ अनिवार्य है। ऐसी बुद्धि और भावना सवसे पहले होनी चाहिये । यहीसे तो गीताका श्रीगणेश होता है। इसीलिये "अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिण" (२।१८) आदि श्लोकोमे अनेक शरीरोमे रहने- वाले शरीरी-आत्मा--को एक ही कहा है। जहाँ 'देहा' यह वहुवचन दिया है, तहा "शरीरिण" एक वचन ही रखा है। आगे भी यही बात है। "क्षेत्रज्ञ चापि मा विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत” (१३।२) मे भी सभी क्षेत्रो- मे-शरीरोमे---एक ही क्षेत्रज्ञ-शरीरीको कहके साफ सुना दिया है कि शरीर और शरीरी--आत्मा-भगवानके ही स्वरूप है । “मयि ते तेषु चाप्यहम्" (६।२६) मे भो यही बात कही गई है कि भक्तजनोमे भगवान है और भगवानमे भक्तजन है-अर्थात् दोनो एक है । "अनन्येनैव योगेन मा ध्यायन्त उपासते" (१२।६) मे भी दोनोकी अभिन्नता-एकता- ही कही गई है। ऐसे ज्ञानियोकी हालत यह होती है कि न तो उनसे किसी- को उद्वेग या जरासी भी दिक्कत मालूम होती है और न उन्हे दूसरोसे । यही वात “यस्मान्नोद्विजते लोक" (१२।१५) मे कही गई है। यही है ज्ञानी जनोकी पहचान । “मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी" (१३।१०) मे इसी अद्वैततत्त्वज्ञानको अव्यभिचारिणी भक्ति नाम दिया है। "मा च योऽव्यभिचारेण" (१४१२६) मे इसे ही अव्यभिचारी भक्तियोग भी कहा है।
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