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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३०४

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६. "अपर्याप्तं तदस्माकम्” गीताके प्रथमाध्यायके 'अपर्याप्त तदस्माकम्' (१११०) श्लोकके अर्थम बहुत मतभेद है । इसके शब्दो और उनके अर्थोंकी मनमानी खीच- तान की गई है। अत स्पष्टीकरण जरूरी है। सक्षेपमें दो खयालके लोग इस सम्बन्धमे पाये जाते है । एक तो वह है जो मानते है कि दुर्योधन अपनी फौजको कमजोर या नाकाफी कहे, इसकी कोई वजह नही थी। इसके उलटे काफी और अपरिमित कहनेके कई प्रमाण वे लोग पेश करते है। पहली बात यह है कि खुद दुर्योधनने उद्योगपर्व (५४१६०-७०) मे अपनी सेनाकी सब तरहसे तारीफ करके कहा था कि जीत मेरी ही होगी। दूसरी यह कि उसने गीतामे जो श्लोक कहे है प्राय इसी तरहके श्लोक उसके मुंहसे गोताके बाद ही भीष्मपर्व (५११४-६) मे पुनरपि द्रोणा- चार्यके ही सामने निकले है। तीसरी यह कि यह बयान अपने सैनिकोको प्रोत्साहित करनेके ही लिये तो किया गया है। फिर इसमें अपनी ही कमजोरीकी बात कैसे आयेगी ? तब तो उलटा ही प्रभाव होगा न ? और स्वय दुर्योधन ही इतनी बड़ी भूल करे, यह कब सभव है ? जो लोग ऐसा खयाल करते है कि दुर्योधन डरके मारे ही ऐसा कह रहा था, वह भूलते है। क्योकि महाभारतकी लम्बी पोथीमें कहीं भी उसके भयभीत होनेका जिक्र है नही। विपरीत इसके भीष्मपर्व (१६५ तथा २१११) से पता चलता है कि दुर्योधनकी ग्यारह अक्षौहिणीके मुका- बिलेमे अपनी केवल सात ही अक्षौहणी सेना देखके युधिष्ठिरको ही खिन्नता हुई थी। इसीलिये इस खयालके लोग इस श्लोकके पर्याप्त और अपर्याप्त शब्दोका आमतौरसे प्रचलित अर्थ काफी और नाकाफी मानने में दिक्कत