5 "अपर्याप्तं तदस्माकम्" ३०९ एव ऊपरवाली अडचने देखके इनका दूसरा ही अर्थ मर्यादित या परिमित और अमर्यादित या अपरिमित करते है। इन अर्थोमे भी दिक्कत जरूर है। क्योकि ये प्रचलित नही है। मगर ऊपर लिखी दिक्कतोकी अपेक्षा यह दिक्कत कोई चीज नही है । ऐसी परिस्थितियोमे ही तो शब्दोके दूसरे-दूसरे अर्थ माने जाते है जो आमतौरसे अप्रसिद्ध होते है । इसीलिये शब्दोको पतजलिने महाभाष्यमे बार-बार कामधेनु कहा है “शब्दा कामधेनव"। क्योकि सकटके समय या मौकेपर जैसा चाहिये इनसे अर्थ (प्रयोजन) प्राप्त कर लीजिये। यही है पहले खयालवालोकी स्थिति । मगर दूसरे खयालवाले शब्दोके प्रचलित और आमतौरसे मालूम अर्थोंको छोड़नेके लिये यहाँ तैयार नही है। इस सम्बन्धमे जो दलीले पहले खयालवाले देते है उनके विचारसे वे सभी लचर है। शब्दोके अर्थोके वारेमे मीमासादर्शनमे जो यह नियम माना गया है कि शब्दसे आमतौरसे मालूम होनेवाले सीधे अर्थको ही लेना चाहिये उसे छोडनेका कारण कोई भी यहा है नहीं। बेशक दुर्योधन भयभीत था और इसके लिये दूर न जाके इसी श्लोकमे प्रमाण रखा हुआ है । श्लोकके पूर्वार्द्धमे 'अपर्याप्त के बाद ही 'तत्' शब्द है जिसके आगे 'अस्माक' है। इसी तरह उत्तरार्द्धमे 'पर्याप्त तु'के वाद 'इदम्' है जिसके बाद ‘एतेषां' आया है । 'तत्'का अर्थ है वह या जो सामने न हो। जो पदार्थ केवल दिमागमे हो और सामने न हो साधारणतया उसीको वतानेके लिये 'तत्' पाता है। इसके उलटा जो चीज सामने हो उसीका वाचक 'इदम्' है । अब जरा मजा तो देखिये कि खुद अपनी ही फौजमे खडा होके दुर्योधन द्रोणाचार्यसे बाते कर रहा है और अपने खास-खास योद्धाअोके नाम उसने अभी-अभी गिनाके यह श्लोक कहा है-यह बात कही है। पाडव-सेनाकी वात पहले कहके अपनी फौजको पीछे बोला है और फौरन ही उसीके बाद 'अपर्याप्त' आया है। ऐसी हालतमे तो हर तरहसे अपनी ही सेना
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३०५
दिखावट