"जायते वर्णसंकरः" ३१६ जैसे ब्राह्मण ऋषिको ज्ञान दिया था। जनककी भी यही बात थी। उपनिषदो मे प्रतर्दन आदि राजाओके बारेमे तो यहाँ तक लिखा है कि पञ्चाग्नि विद्या जैसी चीजे वही जानते वे आरुणि जैसे प्रगाढ विद्वान् ब्राह्मणोको भी मालूम न थी। इसी प्रकार तुलाधार वणिक् और जाजलि ब्राह्मणका सम्वाद महाभारतके शान्तिपर्वमे आता है जिसमे ब्राह्मणको बनियेने ज्ञानोपदेश किया है । शूद्रको वात तो इतनी बड़ी है कि साक्षात् धर्म व्याधको ही कथा महाभारतमे है जहाँ सन्यासी तक ज्ञान सीखने जाते थे। इसीलिये मनुने तीसरे अध्यायमे कहा है कि "गृहस्थ ही तो शेष तीन आश्रमवालोको अन्न और ज्ञान देकर कायम रखता है। इस- लिये वही चारोमे बडा आश्रम है"-"यस्मात्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन- चान्वहम् । गृहस्थेनैवधार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमोगृही" फिर भी ब्राह्मणोकाही प्रधान काम रखा गया था विद्या देना और ज्ञानका प्रचार करना। असलमे जब तक एक दल समाजमे ऐसा न हो जिसका काम ही हो अन्वेषण, जाँच-पडताल, प्रयोग और सोचना-विचारना तब तक ज्ञानका विकास असभव है। खासकर उस जमानेमे जब आजकी तरह ज्ञानके साधनोका विकास हो पाया न था और न ऐसे यत्र ही वन पाये थे जो आज पाये जाते है । यातायातके साधन भी ऐसे न थे कि दुर्गमसे भी दुर्गम स्थानोमे जाया जा सके। उस दशामे सभी प्रकारकी शोध और अन्वेषण वगैरहकी प्रगतिके लिये यह जरूरी था कि समाजका एक भाग हर तरहसे निश्चिन्त करके इसी कामके लिये छोड दिया जाय । उपनिषदो और दूसरे ग्रथोमे जो ऋषियो एव विद्वानोको गोप्ठियो तथा सभाओके बार- बार वर्णन पाये जाते है वह उन्ही ब्राह्मणोको वैसोही कान्फ्रेसे थी जैसी आजकल' दर्शन, विज्ञान आदिकी कान्फ्रेसे हुआ करती है। अपने-अपने अनुभवोको वहाँ प्रकट करके मिलान की जाती थी और कोई न कोई निष्कर्ष निकाला जाता था। 1
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