. १. “सर्व धर्मान्परित्यज्य" अब हमे विशेष कुछ नही कहना है । फिर भी गीताके अठारहवें अध्यायके अन्तमे जो "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेक शरण व्रज । अह त्वां मर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच" (६६) श्लोक आया है उसके ही सम्बन्धमें कुछ लिखना हम जरूरी समझते है । इसका यह मतलब नहीं है कि अवतकके हमारे कथनने उसपर प्रकाश नही डाला है। उसकी चर्चा तो वार-बार आई है । यह भी नहीं कि हम कोई नई वात खास तौरसे यहाँ कहने जा रहे है । इस सम्बन्धमे इतना कहा जा चुका है कि नई वात मालूम पडती ही नही । यो तो गीता हीरा ठहरी । इसीलिये इसे जितना ही कसो, इसपर जितना ही विचार करो यह उतनी ही खरी निकलती है और इसकी चमक उतनी ही बढती है। बात असल यह है कि एक तो अठारहवे अध्यायको ही गीताका उपसहार-अध्याय माना जाता है। उसमे भी अन्तमे यह श्लोक आया है । इसलिये गीताके उपसहारका भी उपसहार इसे मानके लोगोने अपने-अपने मत और सम्प्रदाय- के अनुसार इसके अर्थकी काफी खीच-तान की है । यदि यह कहे कि यह श्लोक एक प्रकारसे गीतार्थका कुरुक्षेत्र बना दिया गया है तो कोई अत्युक्ति न होगी। इसलिये हम यहाँ यही दिखाना चाहते है कि साम्प्रदायिकताके प्राग्रहमे गीताको उसके अत्यन्त महान् एव उच्च स्थानसे वेदर्दीके साथ घसीटके गहरे गढेमे गिरानेकी कोशिश वडेसे बडे विद्वान भी किस प्रकार करते है। इसी वातका यह एक नमूना है। इसीसे समूची गीतामें की गई खीच-तान और जबर्दस्तीका पता लग जायगा । हमारा काम यह नहीं रहा है कि इतने लम्बे लेखमे किसीका भी खालतीरसे खड्न-मडन करे । हम इसे अनुचित समझते है । इसके लिये तो स्वतत्र रूपसे लिखने-
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