३४२ गीता-हृदय ? धर्मोका फल लेते है तो उसका त्याग तो भगवानकी शरणमें जानेपर भी होता ही रहेगा। क्योकि ऐसा अर्थ करनेवाले तो श्रवण, कीर्तन आदि नौ प्रकारकी भक्तिको ही असल चीज मानते है। उनके मतसे शरण जानेका अर्थ ही है यही नवधा-नौ प्रकारकी-भक्ति करना। अन्य धर्मोको भी करते रहना वे मानते ही है। ऐसी दशामे उनके फलोका त्याग तो बादमे भी होता ही रहेगा। फिर यह कहने के क्या मानी कि सभी धर्मोसे अपना पिंड पहले ही छुडा लो, अगर धर्मोका अर्थ है उनका फलमात्र अव जरा दूसरोका अर्थ भी देखे । मध्वसम्प्रदायके आचार्य अपने इसी श्लोकके भाष्यमे लिखते है कि “यहाँ धर्मोके त्यागका अर्थ है उनके फलोका ही त्याग, न कि खुद धर्मोंका ही। क्योकि तब युद्ध करनेकी जो आज्ञा दी गई है वह कैसे ठीक होगी। इसके अलावे खुद गीताके १८वें अध्यायके ११वे श्लोकमें तो कही दिया है कि जो कर्मोंके फलोका त्याग करता है उसे ही त्यागी कहते है-"धर्मत्याग फलत्याग । कथमन्यथा युद्धविधि ? 'यस्तुकर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयत' इति चोक्तम् ।" रामानुज-सम्प्रदायके आचार्य स्वय रामानुजके भाष्यमे भी कुछ इसी तरहकी बात लिखी गई है। वह कहते है कि "मुक्तिके साधनके रूपमें जितने भी काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एव भक्तियोगके नामसे प्रसिद्ध है वे सभी भगवानकी आराधना ही है। इसलिये प्रेमके साथ जिसे जो धर्म करनेको शास्त्रोने कहा है उसे करते हुए ही पूर्व बताये तरीकेसे उनके फलो एव कर्तृत्वके अभिमानको छोडके केवल हमीको सबका कर्ता तथा पाराध्यदेव मानो"-"कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोगरूपान्सन्धिर्मान् परमनि श्रेयससाधनभूतान् मदाराधनत्वेनातिमात्रप्रीत्या यथाधिकार कुर्वाण एवोक्तरीत्या फलकर्मकर्तृत्वादिपरित्यागेन परित्यज्य मामेकमेव कार- माराध्य प्राप्यमुपाय चानुसन्धत्स्व ।" "एष एव सर्वधर्माणा शास्त्रीय ?
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