पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३३९

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"सर्व धर्मान्परित्यज्य" , . परित्यागः"-"यही-फलादिका त्याग ही-सब धर्मोंका शास्त्र रोतिके, अनुसार त्याग माना जाता है, न कि स्वय धर्मोका त्याग ही।" ये दो तो पुराने आचार्योंके अर्थ हुए। अव जरा हाल-सालके लोक- मान्य तिलकके हाथो लिखे गये गीतारहस्यमें माने गये अर्थको भी देखे । वह पहले यह लिखते हैं कि “यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने व्यक्त स्वरूपके विषयमे ही कह रहे है। इस कारण हमारा यह दृढ मत है कि यह उप- सहार भक्तिप्रधान ही है।" फिर कहते है कि "परन्तु इस स्थानपर गीताके प्रतिपाद्य धर्मके अनुरोधसे भगवानका यह निश्चयात्मक उपदेश है कि उक्त नाना धर्मोके गडबडमे न पडकर मुझ अकेलेको भज, मै तेरा उद्धार कर दूंगा, डर मत।" मगर आखिर मे कहते है कि "मेरी दृढ़ भक्ति करके मत्परायण बुद्धिसे स्वधर्मानुसार प्राप्त होनेवाले कर्म करते जानेपर इह लोक और पर लोक दोनो जगह तुम्हारा कल्याण होगा; डरो मत'" इसे पढनेसे तो एक अजीब झमेला खडा हो जाता है। एक ओर सव धर्म करते रहनेकी बात और दूसरी ओर उन्हें छोडनेकी बात ! लेकिन तिलकने कुछ खास धर्मोको यहाँ गिनाके कहा है कि इन अहिंसा, दान, गुरुसेवा, सत्त्य, मातृपितृसेवा, यज्ञयाग और सन्यास आदि धर्मोको, जो परमेश्वरकी प्राप्तिके साधन माने जाते है, छोडके साकार भगवानकी ही भक्ति करो। इस श्लोकके धर्मसे उनका मतलव उन्ही चन्द गिने- गिनाये धर्मोस ही है । उनने धर्म शब्दका अर्थ धर्मोका फल करना मुना- सिव न समझ यह नवीन मार्ग स्वीकार किया है। कुछ नवीनता भी तो आखिर चाहिये ही। हमने साम्प्रदायिक अर्थोकी वानगी दिखा दी । यह ठीक है कि तिलकने अपने अर्थको साम्प्रदायिक नही माना है। बल्कि उनने शकर, रामानुज प्रादिके ही अर्थोंको साम्प्रदायिक कहके निन्दा की है। मगर साम्प्रदायिकताके कोई सीग-पूंछ तो होती नही । जो वात पहलेसे चली