पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३४१

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"सर्व धन्पिरित्यज्य" ३४५ an विभूति । फिर इतनीसी मामूली बातको भी क्या वे समझ न सके कि खुद अपनी पूजा--प्रगसाकी वाते कितनी बुरी और निन्दनीय होती है वे इतने नीचे उतरनेकी वात सोच भी कैसे सकते थे ? उनकी ऐसी हिम्मत हो भी कैसे सकती थी ? यदि यह मान ले कि उनने अपने साकार स्वरूप- की उपासनाकी बात नहीं कहके भगवानके ही वैसे रूपकी भक्तिका उप- देश किया, तो फिर यह लिखनेका क्या अर्थ है कि “यहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने व्यक्त स्वरूपके विषयमे ही कह रहे है ?" इस वाक्यमे "श्रीकृष्ण अपने" इन शब्दोकी क्या जरूरत थी ? इनसे तो कृष्णकी अपनी ही प्रशसाका प्रतिपादन सिद्ध होता है। अच्छा, यदि यही मान ले कि भगवानके ही व्यक्तरूपकी उपासना है और कृष्ण अपनेको भगवान समझके ही ऐसा उपदेश करते है, इसी- लिये उन्हें अपनी व्यक्तिगत बडाईसे कोई भी मतलव नही है ; तो दूसरी ही दिक्कत आ खडी हो जाती है। यदि गीतारहस्यमे लिखे इस श्लोकका शब्दार्थ पढे तो वहाँ लिखा है कि “सब धर्मोको छोडकर तू केवल मेरी ही शरणमे आ जा। मैं तुझे सव पापोसे मुक्त करूँगा, डर मत ।" यहाँ जो "या जा" लिखा गया है वह श्लोकके "ब्रज"का ही अर्थ है । मगर 'वज'का तो अर्थ होता है 'जा'। व्रज धातु तो जानेके ही अर्थमे है, न कि आनेके अर्थमे। इसलिये जबतक श्लोकमे 'पावज' नही हो तबतक 'या जा' अर्थ होगा कैसे ? यह तो उलटी बात होगी। हमने पहले भी यह लिखा है और बताया है कि उस दशामे इस श्लोकका क्या रूप बन जायगा । जबतक 'आ जा' या 'मानो' अर्थ नही करते तवतक अर्जुनके सामने खड़े कृष्णके व्यक्त स्वरूपकी शरण जानेकी बात इस श्लोकसे सिद्ध हो सकती ही नही। क्योकि जव कृष्ण खुद सामने खडे है तो अर्जुनसे अपने वारेमे 'मेरी शरण आ जा' यही कह सकते है। अगर 'मेरी शरण जा' कहे तव तो प्रत्यक्ष साकार रूपको छोडके अपने किमी और या निराकार रूपसे