३४४ गीता-हृदय . आती हो उसीका समर्थन करना यही तो साम्प्रदायिकता है। तिलकने यही किया है भी। भक्तिमार्ग तो पुराना है । व्यक्त या साकार भगवान- की उपासना करना ही भक्तिमार्ग माना जाता है। तिलकने न सिर्फ इसी श्लोकमे, बल्कि गीतारहस्यमें सैकडो जगह इसी भक्तिमार्गपर जोर दिया है। वह तो गीताका विषय ही मानते है “तत्त्वज्ञानमूलक भक्ति प्रधानकर्मयोग।" उनने भक्तिमागियोके ज्ञानकर्म-समुच्चयके समर्थनमे भी बहुत ज्यादा जोर दिया है। यदि और नही तो गीतारहस्यके "भक्ति- मार्ग" तथा "सन्यास और कर्मयोग' इन दो प्रकरणोको ही पढके और खासकर रहस्यके ३५८-३६५ पृष्ठोको ही देखके कोई भी कह सकता है कि उसमें घोर साम्प्रदायिकता है। भक्तिमार्गकी आधुनिक वकालत तो ऐसी और कही मिलती ही नहीं। श्लोकोके अर्थ करनेमे प्राचीन लोगोकी अपेक्षा कुछ नई बात कह देनेसे ही साम्प्रदायिकतासे पिंड छूट नही सकता। हरेक सम्प्रदायके टीकाकारोमे पाया जाता है कि वे लोग शब्दार्थमे कुछ न कुछ फर्क रखते ही है । वे प्रतिपादनकी नई शैली भी निकालते है । आखिर पुराने अर्थों एव तरीकोमे जो दोष विरोधी लोग निकालते है उनका समाधान भी तो करना जरूरी होता है । हाँ, तो इन अर्थोपर विचार कर देखे कि ये कहाँतक युक्तिसगत और सही है। सबसे पहले तिलककी बात ले। उनके अर्थ में दो वाते है। एक तो वे कृष्ण के साकार या व्यक्त स्वरूपकी ही उपासना, पूजा या भक्तिका निरूपण इस श्लोकमे मानते है । दूसरे धर्मका अर्थ कुछ खास धर्ममात्र करके सन्तोष कर लेते है। अब जहाँतक व्यक्त कृष्णकी उपासनाकी वात है वह तो कुछ जंचती नहीं। चाहे और वाते कुछ हो या न हो, लेकिन क्या कृष्ण जैसे महान् पुरुषके लिये कभी भी उचित था कि अपने व्यक्त स्वरुपकी पूजा और उपासनाकी बात कहें ? यह कितनी छोटी बात है । यह उनके दिमागमे आ भी कैसे सकती थी? वे ठहरे महान् 7
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३४०
दिखावट