पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३४४

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३४८ गीता-हृदय सबसे बड़ी बात यह है कि गीताके उपदेशका यही आखिरी श्लोक है। इसके बाद जो बातें कही गई है वे तो शिष्टाचार वगैरहकी है कि गीताकी ये बातें किन्हें सुनाई जायँ, किन्हें नहीं प्रादि-आदि। मगर इस श्लोकमें जो पेचीदगी आ जाती है उससे बातकी सफाईके वदले घपला और भी वढ जाता है। यहां धर्म कहनेसे सभी धर्मोको ले, या कुछेकको ही। यदि कुछेकको ही लेनेकी बात कहें तभी गडवड होती है। सभीके लेनेमे तो रास्ता एकदम साफ है-कही रोक-टोक नहीं। कुछेकके लेनमें किन्हें लें, किन्हे नहीं, यह सवाल खामखा खडा हो जाता है। यदि यह भी लिखा होता कि शान्ति पर्व या अश्वमेध पर्वके उन दो अध्यायोमें लिखे धर्मोको ही ले सकते है, दूसरोको नही, तो भी काम चल जाता और घपला न होता। मगर ऐसा तो लिखा है नहीं। यहाँ तो धर्म शब्दसे ही अटकल लगाना है कि किनको ले, किनको न लें। ऐसी हालतमे यदि कुछ ऐसे धर्म छूट गये जिन्हें लेना जरूरी है, या कुछ ऐसे लिये गये जिनका लेना ठीक नही, तो क्या होगा? तव तो सारा मामलाही गडबडीमे पड जायगा। ऐमा नहीं होगा यह कैसे कहा जाय ? आखिर अटकलपच्चू वात ही तो ठहरी । फलत अर्जुनका दिमाग साफ होनेके बजाय और भी पागापीछामे पड जायगा--अगर ज्यादा नही तो कमसे कम उतना आगापोछामे तो जरूर, जितना गीतोपदेशके शुरुमें था। ऐसी हालतमे इनके वाद ही अर्जुनका यह कहना कैसे ठीक हो सकता है कि "आपकी कृपासे मेरा मोह दूर हो गया, मुझे सारी बाते याद हो पाई और अब मुझे जरा भी शक किनी भी बातमें नहीं है, इसलिये आपकी बात मान लूंगा"'नष्टोमोह स्मृतिर्लद्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मिगतसदेह करिप्ये वचन तव" (१८७३) ? यह तो उलटी वात हो जाती है । अन्तमे कृष्णकी आज्ञा क्या हुई इसका पता भी लगता नहीं। फिर उनकी किस वातको माननेका वादा अर्जुनने किया ? और जब रणागणमें मरनेवाला