"सर्व धर्मापरित्यज्य" ३४६ ? धर्म आखिरमे छोड देनेको ही कहा गया था तो अर्जुन कृष्णकी बात मानके लडने क्यो लगा गीतारहस्यमे लिखे अर्थके बारेमे जो कुछ कहा गया है उससे शेष दो अर्थोकी भी बहुत कुछ बातोपर प्रकाश पड़ जाता है । असलमे रामानुज- भाष्यमे आगे एक दूसरा भी अर्थ किया गया है जो तिलकके अर्थसे बहुत कुछ मिलता-जुलता है । वहाँ धर्मका अर्थ कृच्छ्, चान्द्रायण, वैश्वानर ग्रादि अनेक यज्ञ-याग और व्रत विशेष ही किया गया है। इसीलिये जो बाते इस तरहके अर्थमे गीतारहस्यपर लागू है वही उस अर्थपर भी। यह ठोक है कि तिलकने एक ही धर्म शब्दके दो अर्थ कर डाले है। क्योकि एक ओर तो वह कुछ गिनेचुने धर्मोको ही धर्म-शब्दार्थ मानके उनका त्याग चाहते है । लेकिन दूसरी ओर उसी शब्दका यह भी अर्थ करते है कि “स्वधर्मानुसार प्राप्त होनेवाले कर्म करते जानेपर।" इसीलिये उनके यहाँ ज्यादा गडबड है । मगर धर्म शब्दका जो कुछ इने-गिने धर्मोसे ही अभिप्राय माना गया है और उसके सम्बन्धमे जो आपत्ति हमने अभी- अभी बताई है वह तो दोनोपर ही लागू है । एक वात और भी दोनो हीमे समान रूपसे पाई जाती है। यदि इस श्लोकके मध्व एव रामानुज भाष्योको उनके उन भाष्योके साथ पढे जो गीताके अन्यान्य श्लोकोके ऊपर और खासकर ग्यारहवे तथा वारहवे अध्यायके ऊपर लिखे गये है, तो पता लग जाता है, कि वे लोग सगुण ब्रह्म या साकार कृष्ण भगवानकी उपासनाको ही इस श्लोकका विषय मानते है। ऐसी दशामे जो भी आपत्ति तिलकवाले अर्थमे 'व्रज'को लेके या और तरहसे उठाई गई है वह तो इनमे भी अक्षरश लागू है । यह कहना कि गीताका पर्यवसान साकार भगवानकी गरणागतिमे ही है, दूसरा मानी नही रखता और इसमे घोरसे घोर आपत्ति बताई जा चुकी है। हम तो पहले ही 'अहम्', 'माम्' आदि शब्दोके अर्थोको समझाते हुए वता
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