उत्तरायण और दक्षिणायन गीताने एक ओर तो यह चीज कही है। दूसरी ओर "त्रैविद्या मा" (९।२०-२१)मे अस्थायी स्वर्ग सुखका भी वर्णन किया है। उसे भी कर्म-फल ही बताया है। वह यही दक्षिणायनवाली ही चीज है । यो तो ब्रह्मज्ञान और आत्मानन्दका गीतामे सारा वर्णन ही है। स्थित प्रज्ञ, भक्त और गुणातीतकी दशा उसी आत्मज्ञान और ब्रह्मानन्दकी ही तो है। सवाल होता है कि स्वर्ग और ब्रह्मानन्दके अलावे उत्तरायण-दक्षिणायनके पृथक् वर्णनकी क्या जरूरत थी ? इससे व्यावहारिक लाभ है क्या ? गीता तो अत्यन्त व्यावहारिक (Practical) है। इसीलिये यह प्रश्न होता है। असलमे कर्मोंके सिलसिलेमे कर्मवादकी बात आते-आते यह भी पानी जरूरी थी। इससे साधारण कर्मोकी तुच्छता, अपूर्ण ज्ञानकी त्रुटि एव पूर्ण तत्त्वज्ञानकी महत्ता सिद्ध हो जाती है। स्वर्गके वर्णनमे केवल स्वर्गकी बात और उसकी अस्थिरता आती है। मगर ब्रह्मलोककी तो आती नहीं। एक बात और है। उपनिषदोमे दक्षिण यानके वर्णनमे कहा गया है कि चन्द्रलोकमे जाके जीवगण देवतायोके अन्न या भोग्य बन जाते है । देवता उन्हे भोगते हैं। देवताका अर्थ है दिव्यशक्तियाँ। वहाँ भी गुलामी ही रहती है। दिव्यशक्तियाँ जीवसे ऊपर रहती है। फिर वह वहाँसे नीचे गिरता है। इसीलिये उसे यह खयाल स्वभावत. होगा कि हम ऐसा क्यो न करे कि कमसे कम ब्रह्मलोक जाये, जहाँ कोई देवता हमपर न रहेगा; या आत्मज्ञान ही क्यो न प्राप्त कर ले कि सभी आने-जानेके झमेलोसे बचे और खुद देवता बन जायँ । क्योकि नौ, दस, ग्यारह अध्यायोमे तो सभी देवताओको परमात्माका अश या उसकी विभूति ही कहा है और ज्ञानी स्वय परमात्मा बन जाता ही है- वह खुद परमात्मा है। बस, इससे अधिक लिखनेका यहाँ मौका नही है। 4
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