पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३७१

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सिद्धि और ससिद्धि ३७७ 7 "यज्ज्ञात्वामुनय सर्वे परासिद्धिमितो गता" (१४११), "स्वस्वे कर्मण्यभि- रत ससिद्धिं लभते नर । स्वकर्मनिरत. सिद्धिं यथाविन्दति तच्छृणु" (१८।४५), "स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानव” (१८१४६), "नैष्कर्म्य सिद्धि परमा सन्यासेनाधिगच्छति' (१८४६) और "सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे" (१८१५०) श्लोकोमे ही यह दिक्कत होती है। इनपर कुछ भी विचार करनेके पूर्व यह जान लेना होगा कि कर्मोके अनेक नतीजोमे एक यह भी है कि उनसे हृदय, मन या अन्त करणको शुद्धि होती है । “योगिन कर्म कुर्वन्ति सग त्यत्त्कात्मशुद्धये" (५।११) मे आत्मशुद्धिका मनकी शुद्धि ही अर्थ है। इसीलिये वहाँ योगी शब्दका अर्थ है साधारण कर्मी, न कि गीताका योगी। क्योकि उसका तो मन पहले ही शुद्ध हो जाता है । वह मनकी शुद्धिके लिये कर्म क्यो करेगा? विना मन शुद्धिके वह योगी होई नहीं सकता। इसीलिये योगी हो जानेपर मन शुद्धिका प्रश्न उठता ही नहीं। फलत यदि पूर्वापरका विचार किया जाय तो “मदर्थमपि” (१२।१०) मे भी सिद्धिका अर्थ है मन शुद्धि ही। इसी प्रकार (१८।४५-४६) मे भी सिद्धि और ससिद्धिका अर्थ मनकी गुद्धि ही है और वह है उसकी चचलताकी निवृत्ति या रागद्वेषसे छुटकारा । "तत्स्वय योगससिद्ध" (४१३८) मे भी यही अर्थ है । इसके सिवाय (८।१५), (१४११) और (१८१४६) इन तीन श्लोकोमे सिद्धि तथा ससिद्धि शब्दमे एक विशेषण लगा है जो दो जगह 'परमा' है और एक जगह ‘परा'। मगर दोनोका अर्थ एक ही है और है वह 'ऊँचे दर्जेकी या सर्वश्रेष्ठ' यही। इनमे जो (१४११)का सिद्धि शब्द है उसीका विशेषण 'परा' है। फलत परासिद्धिका अर्थ है परम कल्याण या मुक्ति ही। परके साथ जुटनेसे सिद्धि शब्द उस प्रसगमे सिवाय मुक्ति या चरमलक्ष्यसिद्धिके अन्य अर्थका वाचक होई नहीं सकता है ।