पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३७०

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सिद्धि और ससिद्धि ३७५ इलजाम लगानेवालोपर ही पड जाता है । यो तो चाहे जो भी दूसरोपर दोष मढ दे सकता है । मगर हम तो ईमानदारीकी बात चाहते है, न कि खीचतान। सिद्धि और संसिद्धि योग शब्द जैसी तो नही, लेकिन सिद्धि और ससिद्धि शब्दो या इसी अर्थमें प्रयुक्त सिद्ध एव ससिद्ध गन्दोको लेकर भी गीताके श्लोकोके अर्थोंमे और इसीलिये कभी-कभी सैद्धान्तिक बातोतकमे कुछ न कुछ गडबड हो जाया करती है। आमतौरसे ये शब्द जिस मानीमे आया करते है वह न होके गोतामे इन शब्दोके कुछ खास मानी प्रसगवश हो जाते है, खासकर ससिद्धि शब्दके । मगर लोग साधारणतया पुराने ढगसे ही अर्थ लगाके या तो खुद घपलेमे पड जाते है, या अपना मतलव निकालने में कामयाब हो जाते है। इसीलिये इनके अर्थका भी थोडासा विचार कर लेना जरूरी है। सिद्धि और सिद्ध शब्द अलौकिक चमत्कार और करिश्मोके ही सम्बन्धमे आमतौरसे वोले जाते है । साधु-फकीरोको या मत्रतत्रका अनुष्ठान करके जो लोग कामयाबी हासिल करते एव चमत्कारको वाते करते है उन्हीको सिद्ध और उनकी शक्तिको सिद्धि कहते है । इसी सिद्धि- की अणिमा, महिमा आदि पाठ किस्मे पुराने ग्रथोमे पाई जाती है। अणिमाके मानी है छोटेसे छोटा बन जाना और महिमाके मानी वडेसे बडा । लकाप्रवेशके समय हनुमानकी इन दोनो सिद्धियोका वयान मिलता है जब वे लकाराक्षसीको चकमा देके भीतर घुस रहे थे। पातजल योग- सूत्रोके "ते समाधावुपसर्गा व्युत्याने सिद्धय (३।३७) मे इसी सिद्धिका जिक्र है जिसके चलते योगी भूत भविष्यकी बाते जान लेता, दूसरोके दिलकी बाते समझ लेता और पक्षि-पशुओके शब्दोका भी अर्थ जानता है। इसी