पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३७९

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३८६ गीता-हृदय कर्म भला और यह बुरा है तबतक हम भटकते ही रहेंगे। तबतक कल्याण हमसे लाख कोस दूर रहेगा दूर होता जायगा। हमें तो अपनी प्रात्माको ही, अपने आपकोही, सबमें वैसे ही देखना है जैसे नमक के टुकड़े में नीचे- ऊपर चारो ओर एक ही चीज होती है- नमक ही नमक होता है । यही बात गीता कहती है, यही उसका और उपनिषदोका अद्वैत-तत्त्व है। नमकका ही दृष्टान्त देकर प्रारुणिने अपने पुत्र श्वेतकेतुको यही वात छान्दोग्योपनिषद्के छठे अध्यायके तेरहवे खडके तीसरे मत्रमें इस तरह कही है, “स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिद सर्व तत्सत्य स प्रात्मा तत्त्वमत्तिश्वेत- केतो।" यह अत्यन्त कठिन होते हुए भी निहायत आसान है, यदि हममें इसकी आग हो, लगन हो । यही बात सूफियोने यो कही है कि “दिलके पाईनेमे है तस्वीरे यार। जब जरा गर्दन झुकाई देख ली" और "बहुत ढूँढा उसे हमने न पाया। अगर पाया पता अपना न पाया"। इसीके हासिल होनेपर यह उद्गार निकली है कि "हासिल हुई तमन्ना जो दिलमे थो मगर। दिलको प्रारजू है कोई आरजू न हो।" उपनिषदोमें इसी उद्गार- को "येन त्यजसि तत्त्यज" कहा है। यही गीताधर्म है और यही उसका योग है। यही वेदान्तका रहस्य है, जिसके फलस्वरूप लोकसग्रह और मानव-समाजके कल्याणोके लिये छोटे-बडे सभी कामोके करनेका रास्ता न सिर्फ साफ हो जाता है, बल्कि सुन्दर, रमणीय और रुचिकर हो जाता है, अत्यत आकर्षक बन जाता है। इसके करते लोकसग्रहार्थ कर्म करनेसे तबीअत ऊवनेके बजाय उसमें और भी तेजीसे लगती जाती है। कितना भी कीजिये, फिर भी सन्तोष होनेके बजाय और करे, और करे यही इच्छा होती रहती है। साथ ही, यदि दृढ सकल्प एव पूर्ण प्रयत्नके बाद भी किसी कारणसे कोई काम पूरा न हो, छूट जाय या और कुछ हो जाय, तो जरा भी बेवैनी या परीशानी नही होती। मस्ती हमेशा बनी रहती है। यही स्थितप्रज्ञ, भक्त और