सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पूर्वापर सम्बन्ध गीताहृदयका अन्तरग भाग या पूर्व भाग लिख चुकनेके वाद, जैसा कि उसके शुरूमें ही कहा जा चुका है, उसके मध्यके गीताभागका लिखा जाना जरूरी हो जाता है। जिस जानकारीकी सहायताके ही लिये वह भाग लिखा गया है और इसीलिये अन्तरग भाग कहा जाता भी है, उसके वाद उसी वातका लिखना अर्थसिद्ध हो जाता है। अन्तरग भागके पढ लेने- पर गीताहृदयके इस दूसरे भागके पढ़नेकी पाकाक्षा खुदवखुद हो जायगी। लोग खामखा चाहेगे कि उसके सहारे गीतासागरमें गोता लगाये। उसके पढनेसे इसके समझनेमें-गीताका अर्थ और अभिप्राय हृदयगम करनेमें- प्रासानी हो जायगी। इसीलिये इसे भी पूरा किया जाना जरूरी हो गया। हमने कोशिश की है कि जहांतक हो सके श्लोकोंके सरल अर्थ ही लिखे जायें जो शब्दोंसे सीधे निकलते है। बेशक, गीता अत्यन्त गहन विषयका प्रतिपादन करती है, सो भी अपने ढगसे । साथ ही, इसकी युक्ति दार्शनिक है, यद्यपि प्रतिपादनकी शैली है पौराणिक । इसलिये शब्दोके अर्थोके समझनेमें कुछ दिक्कत जरूर होती है, जवतक अच्छी तरह प्रसग और पूर्वापरके ऊपर ध्यान न दिया जाय। हमने इस दिक्कत- को बहुत कुछ अन्तरग भागमें दूर भी कर दिया है। फिर भी उसका पाना अनिवार्य है। अत. ऐसे ही स्थानोमे श्लोकोंके अर्थ लिखनेके बाद छोटी या बडी टिप्पणी दे दी गई जिससे उलझन सुलझ जाये और आशय झलक पड़े। आशा है, यह भाग पूर्व भागके साथ मिलके लोगोको-गीता-प्रेमियो- को-सन्तुष्ट कर सकेगा। गीतार्थ-अवगाहनके लिये उनका मार्ग तो कमसे कम साफ करी देगा।