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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३९२

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प्रवेशिका ३६६ , सवै प्रोक्तो महारथ । अमितान्योवयेद्यस्तु सप्रोक्तोऽतिरथस्तु स । रथ- स्त्वेकेन योद्धा स्यात्तन्न्यूनोऽर्द्धरथ स्मृत ।" अव एक ही बात जाननेके लिये रह जाती है और है वह कुरुक्षेत्रकी बात । छान्दोग्य और वृहदारण्यक जैसे प्राचीनतम उपनिषदोमे वार-बार कुरुदेश और कुरुक्षेत्रका नाम आता है। मनुस्मृतिमे भी ब्रह्मर्षिदेशको बताते हुए दूसरे अध्यायमे उसके अन्तर्गत कई प्रदेशोका नाम गिनाके कहा है कि "कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाचाल और शूरसेन इन्ही चार देशोको मिलाके ब्रह्मपिदेश कहा जाता है-कुरुक्षेत्र च मत्स्याश्च पाचाला शूरसेनका । एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तर ।" उसी ब्रह्मर्षिदेशका नाम पीछे कान्यकुब्ज हो गया। वर्तमान गुडगाँव, रोहतक आदि जिले कुरुक्षेत्रके ही भीतर है। उनसे पश्चिम बहुत दूरतकका प्रदेश ब्रह्मावर्त्त कहा जाता था। जाबालोपनिषदके पहले ही मत्रमे कुरुक्षेत्रका नाम आया है। परशुरामके वारेमे यही माना जाता है कि उसी मैदानमें उनने वार-बार क्षत्रियोका सहार किया। दिल्लीके पासका पानीपतका मैदान इधर भी कितनी ही लडाइयोका केन्द्र रहा है। वह कुरुक्षेत्रका ही मैदान है। उसीमे महाभारतका महायुद्ध भी हुआ था। भारतके लिये यह कत्लगाह महाभारतके शत्यपर्वके कुल छब्बीस श्लोकोमे इस कुरुक्षेत्रकी चौहद्दी, इसके मुरय स्थान आदि दिये गये है जो पुराने जमानेके नाम है । वही यह भी लिखा है प्रजापतियोकी यह पुरानी यज्ञशाला है । यहीपर देव- तायोने भी बडे-बडे यज्ञ किये थे। इसीलिये इसकी धूलतक पापनाशक मानी गई है। कुरुक्षेत्रका शब्दार्थ है कुरुका क्षेत्र या खेत । कुरु था कौरव-पाडवोका मूरिस या पूर्वज । वही लिखा है कि इस जमीनको वह बरावर जोतता रहता था । इन्द्रने उसे बार-बार रोका । उसने न माना । जोतनेका मतलव कुछ साफ नही है सिवाय इसके कि पर