पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४०९

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४१६ गीता-हृदय 1 यहाँ मिलते है । उसमें एक बात और भी हो जाती है कि ये बेचारे हमारे बडे बूढे जिन्ही चीजोको लेके एक प्रकारसे पथभ्रष्ट हुए वही चीजें आखिर उनसे हम छीन ही लें, सो भी उनका खून करके, यह कैसा तो लगता है। यह तो कुछ ऐसा मालूम होता है कि वे लोग तो पथभ्रष्ट हुए ही थे। मगर अब हम भी ऐसा करके वैसे ही हो जायेंगे और यह ठीक नही लगता। गुरुजनोको 'अर्थकाम' कहनेका यही मतलव है । इसी अर्थमें "कामकामी" (२।७०) शब्द आया है। इस प्रकार अर्जुनका मन कुछ अजीब पशोपेश और घपलेमें पडा है । क्या वह इन वातोको कहते हुए भी यह नही जानता कि आखिर क्षत्रियका ही धर्म तो लडना है, दूसरेका नही ? फिर वह यो ही निश्चय कैसे कर लेता कि भीख मांगना ही अच्छा है ? मगर इतनेपर भी उसके पशोपेशकी गुजाइश सिर्फ इसीलिये रह जाती कि आखिर युद्धमें सीधे अपने ही लोगो एव गुरुजनोको ही मारना पडे यह तो कोई जरूरी नही है। लडाई तो ऐसी भी हो सकती है जिसमें यह कुछ भी न करना पडे । ऐसी दशामें वैसी ही लडाई क्षत्रियका धर्म क्यो न माना जाय, न कि ऐसी ? यह शका तो स्वाभाविक थी। उधर कृष्ण इसीमें प्रोत्साहित कर रहे थे। रोकते तो थे नही। इसलिये यह भी खयाल होता था कि यदि यह बुरी होती तो वह ऐसा कदापि नही करते । यही था पूरा घपला । अर्जुन इसीकी सफाईके लिये कहता है कि हमें यह भी तो पता नही कि इन दोनो पक्षोमें कौनसा हमारे लिये उत्तम है, अच्छा है । 'गरीयस्' और 'कतरत्' शब्द भी यही अर्थ ठीक है ऐसा सूचित करते है। पहले 'गरीयस्' शब्दको ही लें। यह शब्द, गुरु शब्दसे बना है और गुरु शब्दका अर्थ है भारी, वजनी, बडा, श्रेष्ठ, अच्छा । इसलिये 'गरीयस्' शब्दका अर्थ हो जाता है ज्यादा अच्छा, ज्यादा वजनदार, और भी अच्छा, और भी श्रेष्ठ । अर्जुनके कहनेका यही आशय है कि यो तो दोनो ही -