दूसरा अध्याय ४१७ पक्ष अच्छे है, वजनी है, श्रेष्ठ है। क्योकि तर्क-दलीले दोनो ही पक्षोमे है जिन्हें मै दे भी चुका हूँ। मगर दोनोमे भी ज्यादा वजनदार, ज्यादा अच्छा, ज्यादा श्रेष्ठ कौन है इसका पता मुझे नहीं लगता। मेरे लिये यही तो बड़ी दिक्कत है । मेरी हालत तो "दोलाचल- चित्तवृत्ति" है, मेरा दिमाग तो झूलेकी तरह दोनो ही ओर बराबर जा रहा है-कभी इधर और कभी उधर । फलत. निर्णय नही कर सकता है। अब इसीके साथ 'कतरत्' शब्दको भी मिलाके देखे। ये दोनो ही शब्द यहाँपर नपुसक-लिंगी ही है। पुल्लिग होनेपर 'कतर' और 'गरीयान्' होते । 'कतर' शब्द दोमेसे एकको चुन लेने, अलग कर लेनेके मानीमे आता है। इसका अर्थ है दोमे कौनसा ? दोसे ज्यादेमेसे चुनना हो तो 'कतम' शब्द बोलते है। इसी तरह 'न' शब्दका अर्थ है हमारा या हमारे लिये । सब मिलाके अर्थ हो जाता है कि हमारे लिये इन दोनो पक्षोमे कौनसा पक्ष ज्यादा अच्छा है । जहाँ कोई निश्चित लिंग न हो वहाँ नपुसक ही बोला जाता है। यहाँ भी वही बात है। दो पक्ष, दो बाते, दो चीजे है और इनके लिंगका कोई ठिकाना है नही। मगर जब 'न'का अर्थ करते है 'हम लोगोमे' या 'हम लोगोमेंसे', तो वह साफ ही पुलिंग हो जाता है। तब तो साफ ही पता चलता है कि अर्जुन अपना और दुर्योधनका खयाल करके ही कहता है कि हम दोनोमे कौन वजनी है, कौन जीतेगा, यह मालूम नही । मगर उस दशामे उसे “कतरो नो गरीयान्", ऐसा ही कहना उचित था। श्लोक भी ठीक ही रह जाता है। इसलिये मानना पडता है कि यह बात नही है । साफ ही पुलिगकी जगह नपुसक देनेसे निस्सन्देह वही अर्थ ठीक है जो हमने माना है । जो लोग इस नपुसकवाली बातको मानके भी आगेके “यहा जयेम" आदिको इसीके साथ मिलाते हुए यह अर्थ करते है कि "हम जीते या हमें २७
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