पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४१२

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दूसरा अध्याय ४१६ ऐसा ही अर्थ होता है । 'यदि' शब्द तो खामखा शककी सूचना करता है । उसीका साथी 'यद्वा' शब्द भी यहाँ यही काम करता है । इस श्लोकमे तो अर्जुन साफ-साफ कहता है कि एक तो यही पता नही कि भिक्षावृत्ति ही हमारे लिये ठीक है, या मारकाटके बाद मिलनेवाला राजपाट । दूसरे, अगर हम राजपाटकी ही बात ठीक मान भी ले तो यह भी तो पता नहीं कि हमी जीतेगे या वही लोग । इसलिये यह तो "गुनाह बेलज्जत" सी ही बात लगती है। मारकाट भी करे और राजपाट भी न हाथ लगे, यह तो और भी बुरा होगा। यह भी नही कि लडनेमे अपने लोगोकी मारकाट न होगी । यहाँ तो साफ ही देखते है कि जिन्हे मारनेसे हटना चाहते है वही दुर्योधनादि ही सामने उँटे है । यह अर्थ इतना स्वाभाविक और मौजूं है कि इसमे ननु नच करनेकी जगह रही नही जाती। कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मा त्वा प्रपन्नम् ॥७॥ कुछ भी निश्चय न कर सकनेके फलस्वरूप मुझे कुछ सूझता ही नही और धर्मके निर्णयके वारेमे मेरी बुद्धि घपलेमे पड गई है। (इसीलिये) आपसे पूछता हूँ। मेरे लिये जो ठीक हो वही पक्का-पक्की कहिये । मैं आपका शिष्य हूँ। मुझ शरणमे आयेको-शरणागतको-सिखाइये- रास्ता बताइये ।। यहाँ धर्मका अर्थ है कर्त्तव्य और वह कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य दोनोका ही वाचक है। अर्जुनका कहना यही है कि मै कर्त्तव्याकर्त्तव्यका निश्चय कर सकता नही । मेरी अक्ल काम करती ही नहीं। वह चकरा उठी है । इसका कारण वह बताता है कार्पण्यरूपी दोष । कृपण शब्दसे कार्पण्य बनता है और इसका अर्थ है कृपणता। उसके जानते कृपणता ही वह दोष वा बुराई है जिसने बुद्धिको घपलेमे डाल दिया है। शराब या भांगके.