४१८ गीता-हृदय वे लोग जीत ले -इन दोनोमे श्रेयस्कर कोन है, यह भी समझ नहीं पडता", उनका भी कहना ठीक नहीं है। पहलेकी सारी दलीले ऐसे अर्थके विरुद्ध जाती है । शायद 'जयेम' और 'जयेयु'का विधिलिड् देखके वे लोग इस भ्रममे पड गये है। मगर यहाँ तो चाहे विधिलिड् हो या भविष्यकी क्रिया हो हर हालतमे भविष्य ही अर्थ होगा 'जीतेगे'। पहलेके श्लोकमे 'भुजीय' क्रिया भी तो ऐसी ही है। मगर वहाँ उनने भी भविष्य ही अर्थ किया है । फिर यहाँ भी वही क्यो न किया जाय ? विधिलिड् और श्राशी- लिड्का भविष्य भी अर्थ होता है यह तो “भविष्यति लिट्लौटी" (३।३। १७३) सूत्रमें पाणिनिने खुद माना है। अर्जुनका तो यही कहना है कि हम यह भी तो नहीं जानते कि हम जीतेगे या वे लोग । इस पूर्वार्द्धमें अर्जुनने एक तो यही कहा है। इसके पहले दूसरा यह कि इन दोनो बातोमें कौन ज्यादा अच्छी है यह भी नही जानते । इन दोनोको एक साथ घोलमट्ठा करके ऐसा कहना कि हम जीते या वह जीते इन दोनोमे हमारे लिये कौन वात अच्छी है यह मालूम ही नहीं है, कुछ अच्छा अँचता भी नही । भविष्यकी अनिश्चित वातको अभी तौलना ठीक नही लगता। मारना और मरना तो निश्चित है, चाहे जीते कोई । इसलिये उसके बारेमें अच्छे-बुरेका खोद-विनोद ठीक हो सकता है । मगर जो चीज अनिश्चित है उसके भले-बुरेका क्या विचार? उसीमेसे किसी एकको पहले ही चुन लेनेका क्या प्रसग ? और जीत- हारमे किसी एकको चुननेका तो यो भी प्रश्न नहीं उठता। हार तो कोई भी नहीं चाहता । फ़िर अर्जुन क्यो चाहने लगा यह तो परले दर्जेकी नादानी ही होगी। हॉ, उस सिलसिलेमे मरने-मारनेका प्रश्न और उसे चुनने या पसन्द करने न करनेकी बात जरूर उठती है। हमने उसे माना भी है । अर्जुनने वही वात "यानेव हत्वा में कही भी है । श्लोकमे 'यहा' और 'यदिवा' शब्द भी जीतकी सदिग्धता हीको सूचित करते है । उनका ?
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