पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४१९

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४२६ गीता-हृदय प्राय एक साथ कभी पाई जाती ही नही और परस्पर विरोधी सी है, एक साथ सम्मिलन एक अलौकिक चीज थी, जिसका ठीक-ठीक वर्णन किया जा सकता नहीं। इसीलिये यहाँ यद्यपि “परिहास करते हुएकी तरह" कहके ही खत्म किया । तथापि अन्तमे अठारहवें अध्यायके ७७वे श्लोकमें तो उस रूपको-कृष्णकी उस दशा और भावभगीको-अत्यन्त अद्भुत, अत्यन्त निराला, न भूतो न भविष्यति, कह दिया है। वहाँ सजय साफ ही कहता है कि "कृष्णके उस अद्भुत रूपको बार-बार बखूबी याद करके मुझे महान् आश्चर्य हो रहा है-मै आश्चर्यमें डूब रहा हूँ और रह-रहके मुझमे आनन्दका प्रवाह भी बह रहा है-"तच्च सस्मृत्य सस्मृत्य रूपमत्यद्भुत हरे । विस्मयोमे महान् राजन् हृष्यामि च पुन पुन । सचमुच ही वह अकथनीय, अनिर्वचनीय आकृति थी। कुछ लोगोने 'इव' देखकर ही प्रहासका अर्थ मुस्कुराहट करके सन्तोष किया है। मगर यह तो प्रहास शब्दके साथ ज्यादती है । प्रहास, परिहास और अवहास ये शब्द प्राय एक ही मानीमे आते है । अवहासमे कुछ अपमानकी बात भी साफ मालूम होती है जो शेष दोमे पाई नहीं जाती। किन्तु अर्थात् आती है। केवल मुस्कुरानेका सवाल तो वहाँ था नहीं। वहाँ तो पेचीदा पहेली खडी थी जिसे सुलझाना था। इसीलिये तो सारी दलीले दी गई है। केवल मुस्कुराहटकी बात कहनेपर सारी परिस्थितिका अनादर करना हो जायगा। अव रही एक ही बात । आत्माको अविनाशी, अजन्मा और अकर्ता सिद्ध करनेके पर्व यह प्रश्न हो सकता है कि जब भीष्मादिका मरना- मारना सामने है तो देखना चाहिये कि भीष्मादि कहनेसे कौनसी चीज समझी जाती है । भीष्म शब्दसे दोई वस्तुअोका वोध हो सकता है- या तो शरीरका या उसमे रहनेवाली आत्माका । इन दोनोको ही मानके कृष्णने उत्तर देना उचित समझा और दिया भी है। मगर पहले आत्माकी