दूसरा अध्याय ४२५ विरागी भी हो गये थे। दुर्योधनके साथ न सिर्फ उनकी, बल्कि औरोकी भी, काफी तनातनी हो चुकी थी और मामला बहुत दूरतक पहुंच चुका था। ऐसी दशामे जिस चीजकी जरा भी श्राशा-आशका न थी वही हो जानेसे एक तो उन्हे महान् आश्चर्य हुआ । अर्जुनकी ये अचानक बाते उन्हे लडकपन जैसी जंची भी। आखिर वह वच्चा तो था नही । उसकी तर्क-दलीलोसे ही साफ झलकता है कि काफी समझदार और दूरदेश था। फिर उसने मैदानेजगमें आनेके जरा भी पहले इसका क्यो न इशारा तक किया ? आखिर जो बातें वह वहाँ कह गया वह कोई नई तो थी नही । उन्हीके लिये तो वर्षोसे सारी तैयारी हो रही थी। इसी- लिये अर्जुनका लडकपन समझके उन्हे कुछ क्रोध भी आया। हँसी भी आई । साथ ही, उन्हे एकाएक भारी अन्देशा भी हो गया कि कही सच- मुच सारा गुड गोबर ही न हो जाय । क्योकि ऐसी आकस्मिक घटनाप्रोके चलते जो न हो जाय उसीमे आश्चर्य हो सकता है । अर्जुनका वह बच्चो जैसा रोना-धोना, उसकी वह परीशानी और बेचैनी, उसकी वह निराली मनोवृत्ति वगैरह देखके उन्हे दया भी हो आई । उनका बहुत पुराना प्रेमी तो वह था ही और उसीकी यह दशा | इसके सिवाय जब इतनी गभीर बातोका उपदेश करना था और बारीकियोकी तहमे अच्छी तरह घुसना एव उसे भी घुसाना था, तो गभीरताका होना भी जरूरी था । इस प्रकार उनमें आश्चर्य, क्रोध, हँसी, दया, अन्देशा और गभीरता आदि अनेक बातो तथा भावनाप्रोका एकही साथ जमघट हो गया । उन्हीके साथ आगे-पीछेकी जानें कितनी ही घटनाप्रोकी स्मृति भी आ धमकी। ऐसे मौकेपर तो स्वभावत हजारो बाते याद आई जाती है । ऐसी दशामे कृष्णका उस समयका, जब उनने गीतोपदेश शुरू किया, स्वरूप, चेहरा और भावभगी-ये सभी-निराले ढगके थे, अजीब थे, अलौकिक थे। आधे दर्जनसे ज्यादा खयालो और भावनाप्रोका, जो
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