पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४२८ गीता-हृदय आत्माको अविनाशी सिद्ध करनेमे कृष्णकी जो दलील यहाँ है उसका आशय यही है कि सभी आत्माओके तीन विभाग हो सकते है-कहने- वाली (कृष्णकी), सुननेवाली (अर्जुनकी) और शेष उन सबोकी जो या तो वहाँ लडनेको मौजूद थे या और जगह थे। लेकिन मरने-मारनेका प्रसग होनेके कारण ही और जगह वालोका नाम न लेके सिर्फ रणक्षेत्रमें मौजूद तीन तरहके लोगोकी ओर इशारा किया है । इसीलिये 'ये राजे- 'इमे जनाधिपा'-कहनेका अभिप्राय केवल राजा लोगोंसे ही न होके जो वहाँ मौजूद थे सभीसे है । यह ठीक है कि कुछको छोड सभी राजे या क्षत्रिय ही थे-उन्हीकी प्रधानता थी। इसीलिये सबोको राजे- "जनाधिपा" कह दिया । जैसे जहां ब्राह्मण अधिक हो उस गाँवको ब्राह्मणोका गाँव कह देते है । क्योकि आखिर कुछ और लोग तो गांवमें खामखा होगे। नही तो काम कैसे चलेगा? जो कुछ तर्क युक्ति दी है उससे यह साफ हो जाता है कि जब सभी आत्मायें मौजूद ही है तो वर्तमानके लिये तो कोई बात हई नही । रह गई भूत और भविष्यकी बात । सो तो साफ ही कह दिया है कि न तो पहले ही ऐसा कोई समय था जब हम सभी मौजूद न थे और न आगे ही ऐसा वक्त होगा जब हम न रहें। नतीजा यह हुआ कि जो पदार्थ सभी समयोमें रहे वह तो नित्य एव अविनाशी ही हुआ । नित्य या अविनाशीका लक्षण ही यही है कि जो तीनो कालोमें- सदा-रहे । फिर आत्माके मरनेका सवाल आता ही कहाँसे है मरनेका अर्थ ही है न रहना, और आत्मा को तो आगे भी सदा रहना ही है। यदि किसीका खयाल हो कि पहलेवाली आत्मा दूसरी थी, वर्तमान- वाली और ही है और आगे तीसरी ही होगी। भूत, वर्तमान, भविष्यमें एक ही कैसे रहेगी ? भूत, वर्तमान और भविष्यकी शरीरे तो निश्चय ही ? 1 ?