दूसरा अध्याय ४३५ ? भी। दिमाग या बुद्धि आदि भी तो शरीर आदिकी तरह भौतिक पदार्थ ही ठहरे, जिनकी अपनी अपनी खिचडी अलग पकती रहती है। इसीलिये उनका खात्मा भी होता है। और अगर आत्मा भी उनकी मातहतीमे आ जाय तो वह कैसे बच पायेगी ? तव तो उसकी खैरियत न होगी। लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है । वुद्धि भले ही चली जाय, खत्म हो जाय । मगर उसके स्वको निषेध रूपमे रहना ही है और वही स्व है आत्मा। फिर आत्मा बुद्धिके पजेमे कैसे रहे ? वह तो साफ ही उसकी पहुँचसे वाहर है । यही कारण है कि उसके बारेमे तरह-तरहके खयाल होते है । कोई उसे मरणशील मानता है, तो कोई उसे मारनेवाली ही कहता है । कोई नित्य मानता है, तो कोई अनित्य । जव बुद्धि ठोकरें खाके वहाँ तक पहुँची नही सकती, तो आखिर और होई क्या सकता है जब वहाँ तक बुद्धि पहुँचती ही नही तो उसे मारने मरनेवाली कहना केवल नादानी है, उलटी वात है। क्योकि इससे तो ऐसा हो जाता है कि बुद्धिने उसे पहचान लिया है, उसकी हकीकत जान ली है, वह उस तक पहुँच चुकी है। मारने मरनेकी बात तो शरीरादिमे ही है और यह है आपसी टक्कर, जैसा कि अभी कहा है । आत्मामे यह वाते मानना कोरा अज्ञान है, मूर्खता है । यही बात आगे यो लिखी है- य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभी तो न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥१६॥ (इसलिये) जो इस आत्माको मारनेवाली मानता है और जो इसे मरने- वाली समझता है उन दोनो ही को असलियत मालूम नही है । क्योकि यह तो न मारनेवाली है (और) न मरनेवाली ।१६। न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं. भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२०॥ (क्योकि) यह (आत्म वस्तु)न तो कभी जनमती है और न मरती है
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