४३४ गीता-हृदय या पार्थक्य होनेसे ही प्रलय होती है, विनाश होता है । जब गुण आपसमें मिलते है तभी सृष्टि होती है और ज्योही तन गये कि प्रलय आ धमकी । यही बात जगत्के सभी पदार्थोंकी है। मगर इन सबोंके भीतर मालिक बनके स्व बैठा है, आत्मा मौजूद है और इन बच्चोके घरौदोंके बनने- बिगडनेका तमाशा देख रही है। वह निरन्तर न रहे तो आखिर यह तमाशा देखे कौन ? यही बात इस तरह कहते है- अन्तवन्त इमें देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥१८॥ इन शरीरोके मालिक अविनाशी तथा अचिन्त्य (आत्मा) के ये शरीर तो विनाशी ही कहे गये है-माने गये है। इसलिये युद्ध करो हे अर्जुन । १८ । जब इन शरीरोका नाश , होना ही है तो फिर युद्धमे आनाकानी क्यो ? ये शरीर अगर लडाईमे खत्म न हुए तो कही और ही जगह दूसरी ही चोट खाके या बीमारीसे ही खत्म होगे ही। और नही तो बिजली गिरने, पानीमे डूबने या हिसक जानवरोंके आक्रमणसे ही खत्म होगे। तब हर्ज ही क्या कि यही रणागणमे खत्म हो ? फर्क इतना ही है कि यहा "समर मरण अरु सुरसरि तीरा । राम काज क्षणभग शरीरा।" है । यहाँ मरनेसे यश है, शान है, कर्त्तव्य पालनका सन्तोष है, मनस्तुष्टि है और अन्तमे सद्गति है। मगर और जगह दूसरी तरह मरनेमें यह बात नही होनेसे जबर्दस्त घाटा है। इसलिये जरूर लडो । आत्माको जो अप्रमेय कहा है और जिसका अर्थ है कि वुद्धि या दिमाग भी जिसे पकड नही सकता, जो उसकी भी पहुँचके बाहरकी चीज है, उसका मतलब साफ है । यदि वह किसीकी पकड या कब्जेमें आ जाय तो एक तो उसका स्वातत्र्य जाता रहे । दूसरे पराधीन होने पर वह जिसके अधीन होगी उसके हाथो उसका सब कुछ किया जा सकता है, यहाँ तक कि खात्मा
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