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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४३४

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दसरा अध्याय ४४१ गई है कि चक्षु आदि इन्द्रियो और मन आदिको ही लेके वह जीव शरीर छोडता और नये शरीरमे जाता है। यही उसकी सवारी है अपने लक्ष्य स्थान दूर देशमे पहुँचनेके लिये । हम भी यह चीज पहले ही अच्छी तरह समझा चुके है। असलमे फौरन ही दूसरे गरीरका मिलना असभव भी तो है । कोई वने-बनाये शरीरमे घुसा तो देते नही, जैसे बनी-बनाई कोटमे शरीर घुसाते है । शरीर तो गर्भमे बनता है । सो भी पूरे दस महीनेतक लग जाते है। मगर इन दस महीनोके पहले भी तो यह मानना ही होगा यह जीव माता और पिता दोनोके ही रज-वीर्यमे रहता है। तभी तो दोनोके सयोगसे बच्चेके शरीरका श्रीगणेश होता है। फिर भी इतनेसे ही काम चलता नही । रज और वीर्य तो अन्नसे । बनता है। इसलिये यह भी मानना ही होगा कि रज-वीर्यमे जानेके पहले वह जीव अन्नमे था जिसे स्त्री-पुरुष दोनोने खाया था । अव प्रश्न है कि अन्नमे कहाँसे कैसे आया ? इसका उत्तर छान्दोग्य, कौपीतकि उपनिषदोमे लिखी पचाग्निविद्याके प्रकरणमे मिलेगा। वही लिखा गया है कि जीव मेघमे होके बुष्टिके द्वारा अन्न या फलादिमे आता है। मेघमें भी क्रमश चन्द्रलोक, आकाश, वाय और धूममे होता हुआ आता है । यह बात भी पहले कर्मवादके प्रकरणमे विस्तारसे लिखी जा चुकी है कि वह चन्द्रलोकमे कैसे पहुँचता है। गीतामे भी उत्तरायण- दक्षिणायन मार्गीका जो वर्णन (८।२४-२५) आया है उसमे लिखा है कि अग्नि, धूम आदिके जरिये ही वहाँ पहुंचता है। यह तो बडी ही गभीर और अलौकिक बात है। मगर है यह सही। इसी प्रकार कर्मोके चलते एक जगह शरीर छोडनेके बाद वही जीव हजारो कोसपर नके जन्म लेता है । तब फौरन कैसे शरीर ग्रहण करेगा? वीचमे तो काफी समय जरूर ही लगेगा। प्रश्न हो सकता है कि आत्माका भी अन्त क्यो न हो जाय वृहदारण्यक और जव