४४२ गीता-हृदय 1 " और चीजें खत्म होती है तो वह भी खत्म हो जाय, नष्ट हो जाय । पानीमें डूवके, सडके, आगमे जलके, हवासे सूखके या अस्त्र-शस्त्रादिकी चोटसे सभी पदार्थ नष्ट होते ही है । तव यह क्या बात है कि आत्मा भी इसी तरह नष्ट नहीं हो जाती ? इसका उत्तर देते है कि ऐसा नही हो सकता। क्योकि- नैन छिन्दन्ति शस्त्राणि नैन दहति पावकः । न चैन क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥२३॥ इसे शस्त्र काटते ही नहीं, न अग्नि जलाती है । पानी भी भिगोता नही और न हवा सुखाती है ।२३। (क्यो? इसीलिये कि,-) अच्छेद्योऽयमदाहोऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्य. सर्वगतः स्थाणुरचलोऽय सनातनः॥२४॥ यह काटा जा सकता नही, जलाया भी नहीं जा सकता । यह न (तो) भिगोया ही जा सकता है और न सुखाया जा सकता ही है । (इसीलिये) यह (आत्मा रूप पदार्थ) समयके घेरेसे बाहर, सर्वत्र मौजूद, सबोका आधार, अचल और हमेशा रहनेवाला है। २४ । यहाँ सनातन शब्दका वही अर्थ है जो पहले शाश्वतका कह चुके है। इसी प्रकार जो “येन सर्वमिद ततम्" (२०१७)मे आत्माका सव पदार्थोंमे घुसा रहना कहा गया है वही सर्वगतके मानी है। सबोके आधार- की बात जो पहले आई है वही स्थाणुका अर्थ है। सिर्फ अचल शब्द नया है। मगर अव्यय शब्द पहले जा चुका है। उसके ही मानीमें अचल आया है। विकार या गडबड होनेके लिये पूरी वस्तुको या उसके कुछ हिस्सेको ही हिलाना-डुलाना जरूरी हो जाता है। जबतक उसमे चाल या क्रिया (action) न हो, किसी तरहकी भी गडबड या खरावी- विकार का होना असभव है । परन्तु जो सर्वत्र मौजूद है उसमें क्रिया, होगी कैसे ? क्रियाका अर्थ ही है एक स्थानसे दूसरेमे पहुँचना या जाना।
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