पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४३८

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दूसरा अध्याय ४४५ या अगर भूकम्पसे चारो ओर हडकम्प पड जाय तो भी कोई समझदार हाय-हाय क्यो करेगा, कि उफ, हम ये नाते रोक न सके ? इतना ही नही । जिन गरीरोके मरने या नष्ट होनेका खयाल करके हायतोबाका यह पंवारा फैला रहे हो आखिर उनकी हकीकत भी तो देखो और विचारो। ये चीजे तो सिर्फ “चार दिनोकी चाँदनी" है, सपनेकी सम्पत्ति है, जादूगरके तमाशे है। क्या यह नही होता कि सपनेमे भी हम वन्धु-बान्धवोसे मिलते-जुलते, वाते करते और मौज करते है ? हम हजार कोस दूर कही पडे है, या जेलके भीतर बन्द है। फिर भी सपनेमे स्वजनोके साथ हमारा मधुर मिलन तो होई जाता है और उससे अानन्द भी होता ही है। मगर एकाएक नीद खुली और सब मजा किरकिरा । सभी प्रेमी, स्वजन और गुरुजन गायब | ऐसी बेमुरव्वती कि कुछ पूछिये मत | लेकिन क्या इसके लिये हम माथा पटकते, छाती पीटते या हाय- हाय करते है ? क्यो ? इसीलिये न, कि यह मिलन कुछी देर पहले लापता था, सपनेमे मिलनेवाले ये स्वजन लापता थे, नजरके अोझल थे, दीखते न थे। फिर बीचमे कुछी देरके लिये आ गये, दिख गये, मिल शाये । और फिर ? फिर थोडी ही देर बाद एकाएक गायव हो गये, लापता हो गये, कही दीखते ही नही, हजार दूंढो सही, मगर मिलते ही नही मालूम पडता है, जिस अदर्शनसे, अव्यक्त दशासे व्यक्त हुए थे, आये थे, दीखने लगे थे, पुनरपि उसी हालतमे चले गये, उसी अव्यक्त और अदर्शनमे जा मिले । इसीलिये महाभारतके अन्तके स्त्रीपर्वमे अव्यक्त न कहके प्रदर्शन शब्द ही आया है-“अदर्शनादापतिता पुनश्चादर्शन गता । न ते तव न तेषा त्व तत्र का परिदेवना” (२।१३) । इसका आशय यह है कि ये सभी अदर्शनसे ही आये थे और पुनरपि वही चले गये । न तो वाकईमे ये तुम्हारे है और न तुम इनके । फिर इसमे अफसोस क्या? इसी श्लोकका 1