४४४ गीता-हृदय वाहर है तो यह बात और भी अनभव है । इसलिये उसे निविकार-- विकारशून्य ही मानना पडेगा। यही वात आगे इस तरह कहते है,- अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । तस्मादेवं विदित्यन नानुशोचितुमर्हसि ॥२५॥ यह आत्मा व्यक्त (स्थूल पदार्थ-दृष्टिमे आनेवाली--तो) है नहीं और न बुद्धिकी ही पकडमे आ सकती है। (इसीलिये) यह निर्विकार कही जाती है। अतएव इसे इस तरह जान लेनेपर तुम्हारा बार-बार रोना-धोना ठीक नहीं है ।२५। अथ चैन नित्यजात नित्य वा मन्यसे मृतम् । तथापि त्व महाबाहो नैव शोचितुमर्हसि ॥२६॥ और अगर तुम इने वरावर जनमने और मरनेवाली ही मानते हो, तो भी ओ बहादुर-शक्तिशाली भुजावाले--तुम्हाग इस तरह ग्रफसोस करना अच्छा नही है ।२६। पहले उन्लोकमे अनुगोचितुम्मे जो अनु गव्द पाया है उमीकी जगह यहां उत्तराईमे एव पाया है। उसका भी वही अर्थ है कि बार- बार गोक करना या रोना-धोना ठीक नहीं है । जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्घव जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्व शोचितुमर्हसि ॥२७॥ क्योकि पंदा होनेवालेकी मौत ध्रुव--अवय्यभारी---है। म हुए का जन्म भी ध्रुव है। इसलिये जिन बातोमे किलीका वग हई नही उन्हीके वारेमे तुम्हारी यह चिन्ता-फिर कभी मुनासिब नहीं हो मवनी है ।२७॥ जव जन्म और मरणको कोई भी गस्ति रोक नहीं सकती-नर ये दोनो वाते अनिवार्य है-नो नो दाम हाय-हाय कमी ? पनि यासनानके तारे टटें और इससे हम लोगोका भारी नुक्मान हाजार,
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