दूसरा अध्याय ४४७ 1 ? मान सकते है। मगर सो भी तो नही है। और यह बात भी क्या है कि ऐसी खाँटी और पक्की चीज जनसाधारणकी समझमे न आये ? वह सौदा ही कैसा जो आम लोगोकी पहुँचके वाहर हो ? वह उनके किस कामका, यो चाहे वह सोना ही क्यो न हो, लाख अच्छा-भला क्यो न हो ? आखिर किसी वस्तुकी सचाई-झुठाईकी तराजू भी तो यह जनसाधारणका अनुभव ही है और इस आत्माके वारेमे वही अनुभव लापता ठहरा और हमे समझाना भी तो जनसाधारणको ही है न तब इसे क्योकर माना जाय ? इसीका उत्तर आगे देते हुए कहते है कि यह कुंजड़ेकी साग-भाजी नही है कि दर-दर मारी फिरे। यह तो जौहरीका अमूल्य रत्न है जिसे विरले ही परख पाते है- आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः । आश्चर्यवच्चनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥२६॥ इस (आत्मा) को जाननेवाला कोई विरला ही होता है। (जानकर भी दूसरोको इसे) बतानेवाला तो (और भी) विरला होता है। (यदि कोई वतानेवाला हुआ भी तो) इसके सम्बन्धमे बात सुननेवाला (तो उससे भी) विरला होता है । (खूबी तो यह है कि) इसे पढ-सुनके भी कोई जानता ही नही-शायद ही कोई मुश्किलसे जाने ।२६। देही नित्यमवध्योऽय देहे सर्वस्य भारत । तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥३०॥ (इसलिये जब) हे भारत, सवोके देहती मालिक यह (आत्मा) कभी भी मारी जा सकती है नही, तो (नाहक) किसी भी भौतिक पदार्थके वारेमे तुम्हारा अफसोस करना अच्छा नही है ।३०। स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हति । धाद्धि युद्धाच्छ्योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥३१॥ अपने धर्मका खयाल करके भी तुम्हारा (युद्धसे) डिगना उचित
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