४४८ गीता-हृदय नहीं है। क्योकि क्षत्रियके लिये (तो) धर्म-युद्धसे बढके कोई चीज होई नही सकती ।३१। धर्मशास्त्रकी वात पहले तो चला सकते न थे। क्योकि अर्जुन स्मृतियोके कोरे विधानो और आदेशोको अाँख मूंदके माननेको तैयार न था। वह तो कोई अनाडी या साधारण आदमी था नही कि स्मृतियां अपनी लाठीसे उसे हाँक सके। वह तर्क-दलीलकी कसौटीपर कसके ही किसी चीजको भली-बुरी माननेको तैयार था । इसीलिये कृष्णने पहले यही किया और दार्शनिक युक्तियोसे उसे माकूल किया। उसके वाद स्मृतियोके आदेश भी मजबूतीके साथ काम कर सकते थे। इसीलिये पीछे उनकी चर्चा भी दो श्लोकोमे आ गई है। मगर यह योही है। इसका कोई स्वतत्र महत्त्व नही है। इसीलिये गीताधर्म या गीताकी अपनी चीजोके भीतर इसकी गिनती नही । यह वैसी ही बात है जैसी अपयश और मान-अपमानवाली ३३-३७ श्लोकोमें कही वातें । वह तो गीताधर्ममे आती हई नहीं, यह निर्विवाद है । वे कही गई है व्यावहारिकता- की दृष्टिसे ही अर्जुनमे केवल गर्मी लानेके लिये । गीता व्यावहारिक मार्गको ही पकडके अपने लक्ष्यकी ओर अग्रसर होती है और यश-अपयशकी बात सबसे ज्यादा चुभनेके कारण ही व्यावहारिक है । धर्म-युद्ध कहनेका मतलब यह है कि युद्धके समय क्या किया जाय क्या न किया जाय, आदि वातोके लिये कुछ सर्वसम्मत नियम-कायदे हमेशासे माने जाते रहे । हेगकी परम्परा (Hague Convention) के नामसे वर्तमान समयमें भी ऐसी अनेक बाते सर्वमान्य समझी जाती है । इन्हीमे घायलोकी सेवा-शुश्रूषा, युद्धवन्दियोंके साथ सलूक, जो स्थान खुले (open)घोषित कर दिये गये उनपर आक्रमण न करना, आम जनता (Civil population) पर प्रहार न करना, जहरीली गैसका प्रयोग न करना आदि वाते आ जाती है। हालांकि अपनी-अपनी गर्जसे आज
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