पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४४५

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४५२ गीता-हृदय भूमिकाकी तरह है । नवें या गीताके ४७वें श्लोकमें कर्मयोगका निरूपण शुरू हुआ है। इस श्लोकमे भी समत्व या समताकी बात कही गई है जिसे समदर्शन भी कहते है। यह दूसरी बार समदर्शनकी बात आई है। पहली बार, जैसा कि कह चुके है, १५वें श्लोकके “समदु खसुख" मे आ चुकी है। इसलिये इस श्लोकका अर्थ समझने में उसे भी दृष्टिके सामने रखना पडेगा, खासकर उसके पूर्वार्द्ध “यहि न व्यथयन्त्येते" आदिको । नही, तो बहुत गडबड-घोटाला हो सकता है। बात यह है कि जब कम पानीवाले तालाब या गढेमें मछुए मछली मारना चाहते है, तो उसके पानीको नीचे ऊपर इतना ज्यादा हिला, डुला, चला और मथ देते है कि पानी और कीचड मिलके एक हो जाते है। इससे मछलियां घबराके ऊपर आ जाती या थक-थकाके ढीली पड़ जाती है । फलत पहलेकी तरह तेजीसे इधर-उधर भाग-फिर सकती है नही । इस तरह उनके पकडनेमें आसानी हो जाती है और बातकी वातमे वे मछुअोंके कब्जेमे आ जाती हैं। नहीं तो उन्हे पकडनेमें मछुमोको बहुत परीशानी होती है । इसी तरह दहीको भी मथानीसे ऐसा मथ देते है कि पानी और दही एक हो जाते है । वन्दर जब किसी पेडपर पहले-पहल चढता है तो अकसर उसकी डालोको पकड-पकडके झकझोर देता है और सारे पेडको कॅपा देता है, बेचैन कर देता है। जब छोटा-सा शिकार जबर्दस्त शिकारी कुत्तेके हाथ लगता है तो उसे पकडके शुरूमें ही वह ऐसा झकझोरता है कि शिकारके होश ही गायब हो जाते है और कुत्ता उसे आसानीसे खा जाता है। यही दशा मनकी है। वह आत्माको अपनी मर्जीके मुताविक नचानेके पहले उसे अपने कब्जेमें सोलहो आना करना चाहता है और उसीकी तरकीब करता रहता है। मात्रास्पर्श या भौतिक पदार्थोंके सम्बन्धकी जो बात पहले कही जा चुकी है वह उसी तरकीबका एक भाग है । मन