पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४५१ (इतना ही नही), लोग तुम्हारे अखड अपयश-हमेशा रहनेवाली बदनामी की चर्चा भी करते रहेगे । और प्रतिष्ठित (पुरुष) के लिये (यह) अपयश तो मौतसे भी बढकर (बुरा) है ।३४। भयाद्रणादुपरतं मस्यन्ते त्वां महारथाः। येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥३५॥ (यही नही), महारथी लोग भी समझेगे कि तू डरके मारे ही युद्धसे भाग गया है। (फलत.) जो लोग (आज) तुझे ऊँची नजरसे देखते है उन्हीकी नजरोमे तू गिर जायगा ।३५॥ अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः। निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥३६॥ (इसी प्रकार) तेरे दुश्मन भी तुझे बहुतसी गालियाँ देगे (और) तेरी ताकतकी भी शिकायत करेंगे। भला, उससे बढके बुरा और क्या हो सकता है ? ३६। हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥३७॥ (यह भी तो देख कि) यदि युद्धमे मर जायगा तो स्वर्ग जायगा और अगर जीतेगा तो राजपाट मिलेगा। (इस प्रकार तेरे दोनो ही हाथोमे लड्डू है ।) इसलिये ओ कौतेय, लडनेका निश्चय करके खडा हो जा- इंट जा।३७ सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभी जयाजयो । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥३८॥ जय-पराजय, हानि-लाभ और सुख-दु खमे एक रस रहके युद्धमे डॅट जा। ऐसा होनेपर तुझे पाप छूएगा भी नही ।३८। इसी श्लोकके साथ ही अध्यात्म विवेकके प्रकरणका इस अध्यायमे अन्त होके आगे कर्मयोगका प्रसग शुरू होता है। उसके शुरूके आठ श्लोक