दूसरा अध्याय ४५५ लोगे ।३६। एषा तेऽभिहिता सांख्य बुद्धिोंगेत्विमा शृणु । बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥३९॥ यहाँतक (तो) आत्मतत्त्वकी जानकारी--अध्यात्मजानकी खूबी और बारीकी-तुम्हे बताई जा चुकी। अब योगकी भी जानकारी- कर्मकी पूरी जानकारी और उसकी बारीकी-वाली वह बात भी सुन लो जिसके करते कर्मोंके बन्धनसे अपना पिंड छुडा इसपर बहुत अधिक बाते लिखी जा चुकी है। इसका स्पष्टीकरण भी बखूबी किया जा चुका है। इसलिये यहाँ या आगे कुछ भी लिखना बेमानी है। फिर भी जिस कर्मयोग का निरूपण आगे चलके ४७वे श्लोकमे शुरू करेगे वह सचमुच निराली चीज है, गीताकी अपनी खास देन है। इसीलिये और कही वह पाई जाती नही । अधूरीसी कही मिले भी तो क्या ? सर्वांगपूर्ण कही भी नहीं मिलती। इसीलिये उसके पूर्व अर्जुनका दिमाग उसके अनुकूल कर लेना जरूरी था। सर्वसाधारण परम्पराके अनुसार वह वैसी बात एकाएक सुनके चौक उठता कि यह क्या चीज है ? यह तो अजीब बात है जो न देखी न सुनी गई ऐसा खयाल करके वह उस बातसे हट सकता था। कमसे कम यह तो जरूर हो जाता कि उसका दिल-दिमाग उसमे पूरी तौरसे लगता नहीं। उसमे उसे, चस्का तो आता नही, मजा तो मिलता नही। फिर तो वैसे गभीर विषयको हृदयगम करना असभव ही हो जाता। इसीलिये उससे पहलेके सात श्लोकोमे उसीका रास्ता साफ कर रहे है। कर्मकाड एव धर्माधर्मके निर्णय तथा अनुष्ठानका सारा दार-मदार सिर्फ मीमासाशास्त्र और मीमासकोपर ही है। उनका अपना यही खास विषय है। इसीलिये उनने इस सम्बन्धकी बहुतसी बाते लिखते हुए लिखा और माना है कि कर्मोके करनेमे कौन-कौनसे विघ्न होते है, कैसा हो जाने- पर सारा किया-कराया चौपट हो जाता है, क्या हो जानेपर पुण्यके बदले
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