पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४५६ गीता-हृदय पाप ही पाप हो जाता है और सागोपाग कर्म पूरा न हो जानेपर उसका फल नहीं मिलता। इस तरहकी हजारो बातें और बाधाये कर्ममार्गमें वताई गई है, खतरे खड़े किये गये हैं। यदि इनसे वचनेका कोई भी रास्ता हो तो कितना अच्छा हो? तव तो लोग आसानीसे मीमासकोका मार्ग छोडके वही मार्ग पसन्द करें। गीताने लोगोकी इस मनोवृत्तिका खयाल करके पहले तो यही किया है कि कर्मयोगमे इन खतरोका रास्ता ही बन्द कर दिया है। वहाँ थोडा बहुत या अधूरा काम होनेपर भी न तो पापका डर है, न विफलताकी परीशानी और न दूसरी ही दिक्कत । मीमासकोके मार्गमें दूसरी दिक्कत यह होती है कि उन्हें परीशानी बडी होती है। पहले तो हजारो तरहके उद्देश्योको लेके कर्म किये जाते है। फिर एक-एक उद्देश्यकी शाखा-प्रशाखाये होती है और शाखा-प्रशा- खायोकी भी शाखा-प्रशाखाये। लोभ-लालचका कोई ठिकाता भी तो होता नही । ज्योही सफलता हुई या उसकी आशा नजर आई कि नई-नई कामनाये पैदा होने लगती हैं। यह भी होता है कि शक-शुभेमें कभी मन इधर जाता है और कभी उधर-कभी आगे बढनेको मुस्तैद होता है, तो कभी पीछे खिसक पडता है। इस तरह हजारो तरहकी आशा-आकाक्षाओ, कल्पनाओ एव उमग-मनहूसियोंके घोर जगलमें भटकता रहता है और कभी भी चैन मिलता नही । गीताने इस सारी वलासे भी वचनेका रास्ता कर्मयोगको ही माना है। उसने साफ कह दिया है। फिर तो लोग उधर उत्सुक होगे ही। मीमासकोकी एक तीसरी चीज यह है कि वह स्वर्ग, धन, राज्य आदि सुख साधनोकी गारटी करते है। वे कहते हैं कि विविध कर्मोके अलावे दूसरा उपाय हई नही कि ये सभी चीजें हासिल की जा सकें। यह भी नही कि इन्हें कोई चाहता न हो। ये सभी लोगोकी अभिलपित हैं इसमें कोई भी शक नहीं। परन्तु हजार युद्धादिके सकटोको पार करने पर भी