पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४५

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प्रारुरुक्ष और आरूढ़ २७ . दिया गया है । गोताके छठे अध्यायका "आरुरुक्षोर्मुनर्योग" यह तीसरा श्लोक इस बातको बहुत ही सफाई के साथ बताता है । समदर्शन या साम्यावस्थाको तामे योग या योगावस्था भो कहा है। उसी अध्यायके १८से २३ तकके श्लोकोमे और दूसरे स्थानपर भी यह बात लिखी है । खुद इसी तीसरे श्लोकमे भो योग नाम ही आया है। उसी योगमे आरूढ होने या पहुँचनेकी इच्छावालेको “योगारुरुक्षु" या "योगमारुरुक्षु' कहा है और पक्कापक्को पहुँचके वही स्थिर हो जानेवालेको “योगारूढ" कहा है । तोसरे श्लोकमे ही ये दोनो नाम आये है। लेकिन इसके स्पष्टीकरणके लिये हम उपनिषदोके एकाध वचनोपर भी विचार करेगे। क्योकि गीताको प्रत्येक अध्यायके अन्तमे “गोतासूपनिषत्सु" शब्दोमे उपनिषद भी कहा है। बृहदारण्यक उपनिषदके चौथे अध्यायके चौथं ब्राह्मणके २२वे और पाँचवे ब्राह्मणके छठे मत्रोके कुछ अशोको ही हम यहाँ रखना चाहते है । क्योकि विस्तार करना हमारा लक्ष्य नही है। २२वेमे लिखा है कि "तमेत वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन।" इसका आशय यही है कि "उस आत्मा या ब्रह्मके ज्ञानकी इच्छा ( (विविदिषा या जिज्ञासा) या यो कहिये कि लगन पैदा करने के लिये विवेकी लोग, वेदशास्त्रोके आधारपर, यही निश्चय करते है कि यज्ञ, दान और तप करना चाहिये-ऐसा तप जो शरीरका नाशक न हो या अनशनके रूपमे न हो।" यहाँ यज्ञ, दान और तपसे मतलब है सभी कर्मोंसे । गीताके अनुसार ये तीनो बहुत ही व्यापक है और इनमे सभी क्रियायोका समावेश हो जाता है, जैसा कि सत्रहवे अध्यायके ११से २२ तकके श्लोको और चौथे अध्यायके २४से २६ तकके श्लोकोसे स्पष्ट है । इससे यह तो सिद्ध है कि जिज्ञासु या योगारुरुक्षु बननेके लिये-ज्ञान या योगके प्रति उत्कट अभिलाषा या लगन पैदा करनेके लिये-कर्म जरूरी है, कारण