1 २८ गीता-हृदय है, साधन है, उपाय है । यही बात "पाररुक्षोर्मुनर्योग" प्रादि प्राचं न्नोर में कही गई है। इस प्रकार योग या नमदगंन की तैयारीके लिय काँकी जरूरत मिद्ध हो जाती है। कर्मोक करते-करने ही यह लगन पंदा हो जाती है। कर्म जितनी ही मुस्तैदी एव तत्परतारे गाय किये जायेंगे उतनी ही जल्दी यह लगन पैदा होके गनुप्य उग दमामे पांव देगा-उगमे अत्यन्त निकट या जायगा। इसके बाद उसी २२ मयमे पूर्वोक्त रचनके बाद ही उनीगे मिला हुया यह वचन मिलता है, “एनमा विदित्वा मनिर्भवति एतमेव प्रताजिनो लोकमिच्छन्त प्रव्रजन्ति ।" इसका पागय यह है कि "यात्मज्ञानके बाद ही मनुप्यको मुनि या मननशील हो जाना परता है और उसी ज्ञानी पुष्टि या प्रात्माकी प्राप्तिके लिये लोग मन्यासी बनते है ।" पाचवं ब्राह्मणके छठे मनमे भी लिया है कि "प्रात्मा वा परं द्रष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यामितव्यो मयि ।" इसका अर्थ यह है कि "अरे मैथी, आत्माके ज्ञान या दगंनका होना सर्वथा नवंदा वान्छनीय है। उसके लिये श्रवण, मनन और निदिध्यामन करना होगा।" श्रवणका तात्पर्य है सूब ध्यानने पढना और सुनना कि वह कैगा है। उसके बाद उसपर सूव मनन और विचार करना आवश्यक है। दोनो बाने कर लेनके वाद एकान्तमे समाधि लगाके उसीका निरन्तर चिन्तन करना होगा। तभी पात्मज्ञान हो सकता है। इसी समाधि या निदिध्यासनका विस्तृत वर्णन गौताके छठे अध्यायके १०से ३२, पाठयके मे १३, बारवके ६से १६ और १८वेके ५०से ५५ तकके और दूसरे श्लोकोमे भी है। यही वात "प्रारुरुक्षोर्मुनर्योग" श्लोकके उत्तराद्धमे भी कही गई है कि उगे मुनि और योगामढ वनने-बनानेके लिये गम यानी फर्मोके त्यागकी जरुरत है, त्याग ही उसका कारण है। उपनिपदके वचनमे जो 'मुनि' शब्द है वही गीताके इस श्लोकमे भी पाया जाता है। उपनिषदके वचनोमे साफ
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