सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४६८ गीता-हृदय - धर्मनैपुण्यदर्शिन । न ते कर्म प्रशसन्ति कूप नद्या पिवन्निव” (१०) श्लोक देखनेसे पता लगता है कि वह भी परमज्ञान या आत्मज्ञानकी ही बात कहता है। उसमे साफ ही कहा है कि इस परा या सर्वोच्च वृद्धि-ब्रह्म-विद्या- क्योकि उपनिषदोमे ब्रह्मविद्याको ही परा विद्या कहा है-को जिनने हासिल कर लिया है वे कर्मोकी बडाई नहीं करते, उनकी ओर रुजू नही होते। इसमें दृष्टात देते है कि पीने प्रादिके लिये जो मनुष्य नदीमें पानी पा लेता है वह कूपकी पर्वा नहीं करता। इससे भी पता लगता है कि जल-प्लावनसे यहाँ अभिप्राय होके क्र छोटे बडे और उनसे भी वडे जलाशयोसे ही मतलब है। इसी मानीमे नदी और कूपका नाम लेना ठीक हो सकता है। इस प्रकार यहांतक कर्मयोगकी भूमिका पूरी करके अगले दो श्लोको- मे उसी योगका स्वरूप बताया गया है। कर्मके सम्बन्धकी हिकमत, तरकीब, चातुरी या उपाय होनेके कारण ही इसे कर्मयोग कहते है। इसका बहुत ज्यादा विवेचन और विश्लेषण पहले किया जा चुका है। शान्तिपर्वके राजधर्मानुशासनके ११२वें अध्यायमें भी योग शब्द उपाय या हिकमतके मानीमें यो आया है, "त्वमप्येवविध हित्वा योगेन नियते- न्द्रिय । वर्तस्व बुद्धिमूल तु विजय मनुरब्रवीत्” (१७) । यहाँ 'योगेन' शब्दका अर्थ नीलकठने अपनी टीकामे 'उपायेन' ऐसा ही किया है। शान्तिपर्वके ही १३०वे अध्यायमे भी "अविज्ञानादयोगो हि पुरुषस्योप- जायते । विज्ञानादपि योगश्च योगो भूतिकर पर" (१२) श्लोकमें नीलकठ लिखता है कि "अयोग उपायाभाव -"अयोग शब्दका अर्थ है उपायका न होना।" इससे भी योग शब्द उपायवाचक सिद्ध होता है। योगका स्वरूप दो श्लोकोको मिलाके पूरा हुआ है-- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सगोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥ 11