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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४६२

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दूसरा अध्याय ४६६ योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥४८॥ तुम्हारा अधिकार केवल कर्ममे है, (कर्मोके) फलोमे हर्गिज नही । कर्मोंके फलोका खयाल (भी) न करो। कर्मके त्यागमे तुम्हारा हठ न रहे । हे धनजय, योगमे ही कायम रहके, आसक्ति या करनेका हठ छोड़के तथा वे खामखा पूरे हो यह पर्वा छोडके कर्मोको करो। इसी समता या लापर्वाही-बेफिक्री और मस्तागी-को ही योग कहते है ।४७।४८। पहले दो बार कहे गये समत्वमे और इसमे क्या अन्तर है और इसका मतलब क्या है ये सारी बाते पहले ही अत्यन्त विस्तारके साथ लिखी जा चुकी है। यह तीसरा समत्व कुछ और ही है यह भी वही लिखा गया है। कर्मयोगमे असल चीज योग ही है, जिसका रूप अभी बताया गया है। वह विवेक या ज्ञानस्वरूप ही है यह बात पहले कही जा चुकी है। ४६वें श्लोकमे इसी योगके सम्बन्धकी भूमिकास्वरूप जो "विजानतः जाह्मणस्य" कहा है उससे यह बात निस्सन्देह सिद्ध हो जाती है कि इस योगके मूलमे आत्मतत्त्वका पूर्ण विवेक ही काम करता है। उसके बिना इस योग-कर्मयोग-का स्वरूप तैयार होई नही सकता। इसीलिये जो लोग ऐसा समझते है कि कर्मयोगमे भी वास्तविक चीज एव मूलाधार कर्म ही है और योग या बुद्धि-हिकमत, तरकीब के रूपमे जो ऊंची मनोवृत्ति काम करती है वह सिर्फ सहायक है, उसके स्वरूपको मार्जित और शुद्ध होनेमें केवल मदद करती है, वह भूलते है। यहाँ तो उलटी गगा बहती है। कर्म तो उसका एक कार्यक्षेत्र जैसा है। असल चीज तो वह बुद्धि ही है । उसके मुकाबिलेमे कर्मको ऊँचा दर्जा देनेका सवाल हई नही। किन्तु- दूरेण ह्यदरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥४६॥