पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४६३

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४७० गीता-हृदय हे धनजय, विवेक-बुद्धिरूपी योगकी अपेक्षा कर्म कही छोटी चीज है। (इसलिये) उसी विवेक बुद्धिकी ही शरण जा। क्योकि जो लोग उस विवेक बुद्धिसे रहित होते है वही तो फलकी आकाक्षा करते (और इसीलिये कर्म करते है) ।४६। यहाँ भी कृपण शब्दका वही अर्थ है जो पहले कहा गया है, अर्थात् विवेकबुद्धि या आत्मतत्त्वके ज्ञानसे रहित । बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योग. कर्मसु कौशलम् ॥५०॥ इस ससारमें (उस) विवेकवुद्धिवाला (मनुष्य ही तो) पुण्य-पाप दोनोंसे पिंड छुडा लेता है । इसलिये (उस) बुद्धयात्मक योग (की ही प्राप्ति के लिये यत्न करो। वह योग ही तो कर्मों (के करने) की चातुरी या विशेषज्ञता है, कुशलता है ।५०। कर्मज वुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥५१॥ क्योकि बुद्धियुक्त मनीषी-पहुंचे हुए-लोग ही कर्मोसे होनेवाले (सभी) फलोंसे नाता तोडके जन्म (मरण) के बन्धनोसे छुटकारा पा जाते (तथा) निरुपद्रव पद--निर्वाणमुक्ति प्राप्त कर लेते है ।५ १॥ अब सवाल यह होता है कि तो यह बुद्धि प्राप्त होती है कब और इसकी प्राप्तिकी पहचान क्या है ? यह तो कोई विचित्रसी चीज है, अलौकिकसा पदार्थ है, नायाब वस्तु है, और जैसाकि पहले दिखलाया जा चुका है, जीते ही मौतके समान असभवसी है। इसलिये इसकी प्राप्ति आसान तो हो सकती नहीं। यह भी नही कि यह कोई स्थूल या साधारण भौतिक पदार्थ हो। यह तो असाधारण चीज है। वाहरी नजरोंसे देखी भी नही जा सकती। तव हम कैसे जानेगे कि अब यह हासिल हो इसका उत्तर यह है- गई?