पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४६९

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४७६ गीता-हृदय खत्म हो गई? 1 "किस तरह बोलता है"का और ५८वेंमें 'कैसे वैठता है'का उत्तर दिया गया है । उसके वादके (५६-७०) बारह श्लोकोमें उसी उत्तरके प्रसगमें आई बातोपर विचार करके ७१वेमे कैसे चलता है'का उत्तर दिया गया है। इस तरह सभी प्रश्नोके उत्तरके रूपमें कर्मयोगीका पूर्ण परिचय देके उसकी वास्तविक दशाका चित्र खीचा गया है। उसी दशाको ब्रह्म- निष्ठा या ब्राह्मीस्थिति भी कहते है, यही बात अन्तिम श्लोकमें कहके समूचे प्रकरण एव अध्यायका भी उपसहार कर दिया गया है। यहाँ जो दो श्लोकोमें दो लक्षण कहे गये है उनमें पहला तो नितान्त भीतरी पदार्थ है जिसका पता बाहरसे लगना प्राय असभव है । किसे पता लग सकता है कि दूसरे आदमीकी सभी वासनायें अपने ही भीतर वह मस्त है यह भी जानना क्या सभव है ? आसान है ? इसीलिये दूसरे श्लोकवाली बातें कही गई है। इन बातोके जाननेमें आसानी जरूर है। तकलीफोमे सर और छाती पीटना, हाय-हाय करना आसानीसे जाना जा सकता है। इसी तरह आराम पानेके लिये जो बेचैनी होती है उसका भी पता लगे बिना रहता नही। सबसे बड़ी बात यह है कि राग, भय और क्रोध तो छिपनेवाली चीजें है नहीं। खासकर भय और उससे भी बढके क्रोध हर्गिज छिप सकता नही । इस प्रकार इन लक्षणोंसे योगीको आसानीसे पहचान सकते है। सभी तरहके लोग इन लक्षणोंसे फायदा उठा सकते है, यही इनकी खूबी है । य. सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५७॥ जो किसी भी पदार्थमे ममता नही रखता-चिपका नही होता, इसीलिये जो बुरे-भले (पदार्थों) के मिल जानेपर न तो उनका अभिनन्दन ही करता है और न उन्हें कोसता ही है, उसीकी बुद्धि स्थिर मानी जाती है ।५७।