४७७ दूसरा अध्याय इसके उत्तरार्द्धमे योगीके बोलनेकी बात अभिनन्दन न करने और न कोसनेकी बातके रूपमे साफ ही आई है। योगीके बोलनेकी यही खास बात है कि वह न तो किसीकी स्तुति करता है और न निन्दा । यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५॥ जब यह (योगी) अपनी इन्द्रियोको उनके विषयोसे एकबारगी ठीक उसी तरह समेट लेता है जैसे (सकटके समय) कछुवा अपने सभी अगोको, (तब) उसकी बुद्धि स्थिर मानी जाती है ।५८। कछुवेके चलने-फिरनेसे एकाएक रुक जाने और सभी गर्दन, पाँव आदिको खीच लेनेकी बात कहके 'योगी कैसे बैठता है'का उत्तर दिया गया है। वह अपनी सभी इन्द्रियोका दर्वाजा ही बन्द कर देता है। फिर न तो किसी मनोरजक पदार्थके लिये कही आना होता है और न जाना । यो शरीर-यात्रार्थ नित्य क्रियादिके करनेमे आने-जानेपर कोई भी रोक नहीं होती। ६१वे श्लोकमे भी इन्द्रियोके ही रोकनेकी बात दुहराई गई है और कहा गया है कि इन्द्रियाँ जिसके वशमे हो वही स्थिर बुद्धिवाला है। इन्द्रियोको विषयोंसे रोक देनेकी बात सुनके सवाल होता है कि यदि योगीकी यही बात है तो हठयोगी तपस्वीको भी क्या कभी गीताका कर्मयोगी कह सकते है ? वह भी तो आखिर विषयोसे किनाराकशी करी लेता है। अपनी इन्द्रियोपर वह इतनी सख्तीके साथ लगाम चढाता है कि वे टससे मस होने पाती है नही । सर्दी-गर्मी और भूख-प्यासपर उसका कब्जा साफ ही नजर आता है। मगर ऐसे हठी तपस्वियो और योगियोमे तो जमीन-आसमानका अन्तर । यह कैसे होगा कि गीताका योगी तपस्वीके साथ मिल जाय-उसी तपस्वीसे जिसका वर्णन स्मृति- ग्रथोमे पाया जाता है ? तब तो यह योगी और योग गीताकी अपनी चीज
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