प्रारुरुक्ष और आरूढ़ २६ ? ही सन्यासकी बात कही गई है। यह भी बात है कि मनन एव निदिध्यासन या समाधिके लिये तो जाने कितने समयतक कर्मोको कतई छोड देना आवश्यक हो जाता है। गीताके उक्त श्लोकोके पढनेवाले और समाधिकी वाते जाननेवाले ही बता सकते है कि उस समय कर्मकी गुजाइश कहाँ रह जाती है ? सो भी युग लग जाते है । फिर भी काम पूरा नहीं होता। इसीलिये कर्मोका त्याग या सन्यास खामखा अनिवार्य हो जाता है । जो लोग चौथे अध्यायके उक्त श्लोकके "योगारूढस्य तस्यैव शम कारणमुच्यते' मे शम शब्द देखके एव उसका अर्थ उपशम या मनकी शान्ति लगाके सन्तोष कर लेते और कर्मोका त्याग जरूरी नहीं समझते उनकी समझपर हमें तर्स आता है। योगारूढ शब्दके भीतर तो मनकी शान्ति या उसका निरोध आई जाता है। “योगोऽनिविण्णचेतसा" (६।२३) मे भी यह साफ ही लिखा है कि योगकी सिद्धि मनकी शान्तिके बिना हो नही सकती है। और जब सभी कर्म करते रहे तो फिर मनकी चचलता मिटेगी कैसे ? वह तो बराबर चक्कर लगाता ही रहेगा। हम यहाँ इतनाही कहना काफी समझते है कि योगके वारेमे गीताके जिन-वचनोका नाम हमने लिया है उन्हे पढने और समझनेके बाद यदि फिर भी किसीको यह कहनेकी हिम्मत हो कि समाधिके साथ-साथ विधान प्राप्त कर्म भी हो सकते है, तो हम अपनी भूल स्वीकार कर लेगे। जो लोग यह कहते है कि शमका अर्थ कर्मत्याग या सन्यास नही होता उन्हे चौदहवे अध्यायके "लोभ प्रवृत्तिरारम्भ कर्मणामशम स्पृहा" (१२) को पढके सन्तोष करना चाहिये। वहाँ 'पारम्भ' और 'अशम 'के बीचमे 'कर्मणा' शब्द आया है और यह बताता है कि रजोगुणकी वृद्धि हो जानेपर आदमीको लोभ होता है, कर्मोके करनेकी इच्छा होती है, वह कर्म शुरू भी कर देता है, फिर उसका ताँता वरावर जारी रखता है और उसे वन्द नही करता। 'शम के साथ 'अ' लगनेपर वह बन्द करने या त्यागकी विरोधी बात कहता
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