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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४७५

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दूसरा अध्याय ४८३ इसलिये इस विषयकी विषमताको समझके हमेशा सजग रहना ही होगा। तभी काम चल सकता है । इसीलिये आत्मज्ञानकी भी जरूरत है। यदि रथका मालिक ही जगा न हो तो खुदा ही खैर करे। तब तो सारा मामला ही चौपट । इसलिये- तानि सर्वाणि संयम्य युक्त पासीत मत्परः। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६१॥ उन सबो--इन्द्रियो-को रोक-कब्जेमे करके आत्मामें ही मनको रमाये हुए इँटा रहे । क्योकि (इस प्रकार) जिसके वशमे इन्द्रियाँ हो वही स्थितप्रज्ञ है। ६१ । यहाँ 'मत्पर 'मे 'मत्'का अर्थ साकार कृष्ण नही है। इसका तो प्रसग हई नही। यहाँ तो आत्मज्ञानका ही प्रसग है। इसीलिये ब्रह्म या परमात्मा रूपी आत्मासे ही यहाँ तात्पर्य है । कहते है कि, जिस प्रकार अत्यन्त चचल और क्रियाशील भूतको शान्त करनेके लिये कभी किसी चतुर व्यक्तिने बहुत लम्बे बॉसपर लगातार चढने-उतरनेका काम उसे दिया था-क्योकि वह उससे काम मांगता ही रहता था और इस तरह बेचैन कर डालता था, यहॉतक कि झपकी मारने भी न देता था,-ठीक उसी तरह आत्मामे ही जब मन रम जाय [--जब अन्त करणसे आत्मातक ही आने-जानेकी उसे इजाजत हो, न कि जरा भी इधर-उधर-तभी वह शान्त होता है। तभी इन्द्रियाँ भी कब्जेमे रहती है। इस मामलेमे कितना सतर्क रहनेकी जरूरत है, किस तरह लोग धोका खा जाते है और नीचे जा गिरते है, पद- पदपर इसमे कितना खतरा है और अनजानमे भी जरासी रिआ- यत करनेसे किस तरह सब किये-करायेपर पानी फिर जाता है, इसका बारीकसे बारीक विवेचन और ब्योरा आगेके दो श्लोक यो करते है -