दूसरा अध्याय ४८१ हे कौन्तेय, पूरा समझदार पुरुषके (हजार) यत्न करते रहनेपर भी (ये) बेचैन कर देनेवाली इन्द्रियाँ मनको (अपनी ओर) बलात् खीच लेती है।६०॥ इस श्लोकमे "पुरुषस्य विपश्चित" कहनेका प्रयोजन यही है कि ऐरे-गैरेकी तो बात ही मत पूछिये । विवेकी और मुस्तैद-मर्दाने- लोगोकी भी दुर्गति ये बदजात इन्द्रियाँ कर डालती है। इसी तरह "हरन्ति' शब्दका आशय यह है कि हमे पता ही नही लगने पाता और चुपकेसे मन उधर खिच जाता है। हम हजार चाहे कि ऐसा न हो। मगर इन्द्रियाँ तो ललकार के ऐसा करती है और हमे पता तब चलता है जव एकाएक देखते है कि मनीराम गायब है । इस बातका बहुत ही सुन्दर पालकारिक वर्णन कठोपनिषदके प्रथमा- ध्यायकी द्वितीयवल्लीमे इस तरह किया गया है । जब कोई भला आदमी घोडागाडीपर चढके पक्की सडकके रास्ते कही जाय तो उसे सजग रहके चलना तो होता ही है। नही तो घोडे कही बहक जाये और गाडी नीचे जा गिरे। उसकी यात्रामे वह खुद होता है। कोचवान, लगाम, घोडे, गाडी ये भी होते ही है । सडक भी होती है और उसके किनारे दोनो ओर अकसर नीचे और गहरे गढे भी होते है । यदि उस नीची जगहमे हरी घास लहलहाती हो तो क्या कहना ? घोडे तो घासकी ओर जरूर ही जोर मारते है। उन्हे लक्ष्य स्थानपर पहुँचनेसे क्या मतलब ? वह यह भी क्या समझने गये कि यदि नीचे उतरे तो गाडी और गाडीके मालिक वगैरहके साथ खुद भी उन्हे जख्मी होना या मरना होगा ? उन्हे तो हरी घासकी चाट होती है, उसका चस्का होता है। बस, वाकी बाते भूल जाती है। ऐसी दशामे यदि कोचवान जरा भी लापर्वा हुआ या ऊँचा और लगाम जरा भी ढीली हुई तो सारा गुड गोबर हुआ । रथ या गाड़ी के मालिकको भी पूरा सतर्क रहना होता है । ३१
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